रविवार, 24 अप्रैल 2011

कविता


अपनी बा

मित्रो बहुत दिनों बाद या कहें तीन महीने बीत जाने के बाद अपने इस ब्लॉग पर आ सका हूँ .इस विलम्ब के लिए तो माफ़ी चाहूँगा .प्रयास रहेगा कि जल्दी जल्दी आप के बीच आने का अवसर पाता रहूँ .कुछ कवितायेँ आप के सामने ला रहा हूँ, सभी पुरानी हैं,चुनाव का आधार…आप तक पहुँचने की प्रबल इच्छा मात्र है.

इस वार चाहता हूँ ,कुछ न कहूँ जो कुछ कहना है कवितायेँ कहें। आप की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी…

-सुरेश यादव

यह शहर किसका है

नंगे पांव

भटकने को मजबूर

ये बच्चे भी

इसी शहर के हैं

और…जलती सिगरेटें

रास्तों पर फेंकने के आदी

ये लोग भी इसी शहर के हैं

ये शहर किसका है

जब-जब मेरा मन पूछता है

जलती सिगरेट पर पड़ता है

किसी का नंगा पांव

और…

जवाब में एक बच्चा चीखता है.

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कुदरत का पुरुस्कार


धूप की तपन खुद सहने

छाँव सबको देने का प्रण

पेड़ों ने लिया

धूप ने बदले में

फूलों को रंगीन

पेड़ों को हरा भरा कर दिया

हज़ारों मील चल कर

गयी थीं जो नदियाँ

और…मीठा पानी,

खारे समुन्दर को दिया

बदल गया इतना मन समुन्दर का

रख लिया खारापन पास अपने

और बादलों के हाथ

भेजा मीठे जल का तोहफा

नदियों को फिर जिसने भर दिया।

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धरती माँ कहलाती है

हरी -हरी वह घास उगाती है

फसलों को लहलहाती है

फूलों में भरती रंग

पेड़ों को पाल पोस कर ऊंचा करती

पत्ते पत्ते में रहे जिन्दा हरापन

अपनी देह को खाद बनाती है

धरती इसी लिए माँ कहलाती है |

पानी से तर हैं सब

नदियाँ, पोखर, झरने और समंदर

ज्वालामुखी हजारों फिर भी

सोते धरती के अन्दर

जैसा सूरज तपता आसमान में

धरती के भीतर भी दहकता है

गोद में लेकिन सबको साथ सुलाती है

धरती इसी लिए माँ कहलाती है .

आग पानी को सिखाती साथ रहना

हर बीज सीखता इस तरह उगना

एक हाथ फसलें उगा कर

सबको खिलाती है

दुसरे हाथ सृजन का ,

सह -अस्तित्व का ,

एकता का - पाठ पढ़ाती है

धरती…इसी लिए माँ कहलाती है।

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