अपनी बात

मैं अपनी दो कविताओं को इन शब्दों से पूरी तरह मुक्त कर आप को समर्पित कर रहा हूँ। आशा करता हूँ, आप की टिप्पणी और आप के विचार अवश्य प्राप्त होंगे।
पत्थर और नदी -1
जब ऊँचाइयों से टूटते हैं
तब - पत्थर बहुत 'टूटते ' हैं
डूब कर भी नदी में
बहना चाहते नहीं
धार से जूझते हैं
विरोध करते हैं - पत्थर
सागर में समर्पित होने का
नदी के साथ
रेशा-रेशा घिस कर
तलहटी में बिछ कर
जकड़ कर धरती को
समर्पित होने से पहले
रेत होना बेहतर समझते हैं।
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पत्थर और नदी -2
सीख लेते जब नदी से
दर्प को छोड़ना
नदी के आगोश में आकर जब
भूल जाते
अपने ही दर्प में टूटना
चाहते हैं जब
नदी की धार से खेलना
नदी के साथ बहना
पानी की नर्म उँगलियों का
नर्म स्पर्श पाकर
सम्मान में बिछने लगते हैं
सच में -
श्रृद्धा के मार्ग पर चलने लगते हैं
धीरे-धीरे
पत्थर
शिवलिंग बनने लगते हैं
जल के अर्ध्य फिर
उन पर
श्रृद्धा से चढने लगते हैं।
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