सोमवार, 19 सितंबर 2011

कविता


अपनी बात


मित्रो, हर तरफ हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ों का जोर है. सरकारी तथा अर्ध-सरकारी दफ्तरों के बाहर लगे पोस्टर और बैनर बता रहे हैं कि हिंदी के लिए उत्सव हो रहे हैं. आखिर १४ सितम्बर १९४९ के दिन हिंदी भारत संघ की राजभाषा स्वीकार की गई थी और देवनागरी भी लिपि के रूप में स्वीकार की गई थी. यदि हम तमाम किन्तु-परन्तु हटा दें तो यह संवैधानिक मान्यता इस बहुभाषी राष्ट्र में बहुत महत्व रखती है. हिंदी जिस रूप में जन भाषा है उस रूप को वह सरकारी काम काज में प्राप्त नहीं प्राप्त कर सकी है. कारण स्पष्ट है - अंग्रेजी राज की जड़ें सरकारी काम काज में बहुत गहरी थीं, उखड़ते-उखड़ते फिर ज़मने लगती हैं . अंग्रेजों को जाते-जाते भी तो सदियाँ बीत गयीं थीं. अंग्रेजी पूरी तरह बंद हो तभी हिंदी खुलकर अपने पैर पसार सकती है, लेकिन यह संभव नहीं है क्योंकि बहुत सारे प्रदेशों के सामने समस्या खड़ी हो जायगी जिसका समाधान अनुवाद भी नहीं है. ऐसी स्थिति मैं हीन-भावना से उबरकर, राष्ट्र सम्मान की भावना से भरकर एक दृढ-संकल्प के रूप में हिंदी को अंग्रेजी के ऊपर स्थापित किया जा सकता है. मूल चिंतन ही किसी राष्ट्र को स्वाभिमान और सशक्तिकरण दे सकता है और वह अपनी ही भाषा में होता है. सोच और कर्म दोनों ही स्तरों पर हिंदी की स्वीकार्यता इन हिंदी सप्ताहों और हिंदी पखवाड़ों के मंतव्यों को फलीभूत कर सकती है.

मैं अपनी तीन कवितायें विलम्ब के साथ आप को समर्पित कर रहा हूँ. इन कविताओं का हिंदी सप्ताह से मात्र इतना सम्बन्ध है कि ये हिंदी की कवितायें हैं, ये कवितायें भाव भूमि के साथ भी कोई सामंजस्य भी प्रदर्शित न कर सकें , फिर भी इन्हें एक साथ पढ़ कर हमें कृतार्थ करें.

-सुरेश यादव


ताजमहल

पत्थर भी
अपना रंग बदलने लगते हैं
वक्त के साथ
गलने लगते हैं
मैं -
तुम्हारी याद में कभी
ताजमहल नहीं बनाऊँगा
वक्त के हाथों
बदरंग हो जाए जो पत्थर
मैं
तुम्हारी याद को
ऐसा पत्थर नहीं बनाऊँगा।


माटी का घड़ा

घड़ा माटी का था
फूट गया
मन तो माटी का नहीं था
क्यों टूट गया
माटी
घड़े की हो या देह की
जब-जब टूटती है
धरती है नया रूप माटी (का)
आस्था की कोंपल फिर
फूटती है।

शहर नंगा हुआ

हज़ारों
साधु, संत, फकीरों के
लाखों प्रवचन हुए हैं
अजान की, गूँजी हैं
दूर तक आवाजें
और मंदिर की घंटियाँ भी
बजती रही हैं रोज़
अभी तक
मन लोगों का
जाने कितना 'गंगा' हुआ है
सभ्यता के आवरण
जितने थे शहर के पास
फटते गए
और सारा शहर
एकदम नंगा हुआ है।
शहर में फिर दंगा हुआ है।

00