गुरुवार, 18 मार्च 2010

अपनी बात

सुधी पाठकों और सजग रचनाकारों ने मेरी कविताओं को मेरे नए ब्लॉग पर जितनी सहजता, सहृदयता से स्वीकार किया है, मैं उन सभी का आभारी हूं। मेरा यह दायित्व है कि रचनाओं का चुनाव करते समय यह ध्यान अवश्य रखूं कि आपका अधिक समय न लूं, साथ ही रचनाएं बोझ बनकर भी आपके सामने न जाएं। मैं इस बार अपनी तीन कविताएं प्रस्तुत कर रहा हूं। आपकी सहज प्रतिक्रिया पाने का आकांक्षी रहूंगा।
- सुरेश यादव



कविताएं

जिन्दगी की लय


कहीं पर खड़ी मौत
मांगती हिसाब
जिए गए
एक-एक दिन का
नहीं तो
मतलब क्या है
मेरे या तुम्हारे-जन्म दिन का !

वह दिन
जो-इस चिड़िया के जन्म का था
उड़ान में भूली
उसे अब
याद कहां आता ?

मौत का अहसास
बहुत गहरे
उसको नहीं सताता

साल को साल से
गांठें लगाकर
इसने नहीं जोड़ा
उम्र को आंकड़ों से नहीं तोड़ा

मौत के भय से
कांपी नहीं
जिन्दगी की लय

साल .....महीने... दिन
....और काल....
सबकी खिल्ली उड़ाती
यह चिड़िया
देखो... उड़ रही है
बिना बधाई के।
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पिंजरा


तोता
पिंजरे को-पंखों से
अब नहीं खरोंचता

चोंच गड़ाकर
सलाखों को
चटका देने की कोशिश
अब नहीं करता

पंख फड़फड़ाकर
उड़ने की कोशिश में
पिंजरें की सलाखों से टकराकर
गिर-गिर कर
थक कर- बेसुध होने का यत्न नहीं करता

पानी की प्याली को
कभी नहीं ढुरकाता

तन गुलाम था तोते का
आजाद मन सब करता था
मन गुलाम है अब
देखो तो-
खुला हुआ पिंजरा है
बहर-फैला हुआ आकाश
भूलकर भी
तोता
उस ओर नहीं निहारता।
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शिकारी का हाथ


बहुत शान्त होता है
पानी में
एक टांग खड़ा
बगुला

बहुत शान्त होता है
नंगी डाल पर
गरदन लटकाए बैठा
गिद्ध

बहुत शान्त होता है
बूढ़े कंगूरे पर
चुपचाप बैठा
बाज

बहुत शान्त होता है
निशाना साधते हुए
बंदूक के कुंदे पर
टिका-
शिकारी का हाथ।
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मंगलवार, 2 मार्च 2010

अपनी बात

यह मेरी तीसरी पोस्ट है। मैं इसमें अपनी दो कवितायेँ आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसके पूर्व मैंने एक-एक कविता प्रस्तुत की थी। आशा है , आप अपने समय का थोडा सा हिस्सा मेरी इन रचनाओं को देकर कृतार्थ करेंगे ।
-सुरेश यादव
कविताएँ
शांति के प्रश्न
अपनी सुरक्षा की खातिर
बनाते आस-पास
बारूदी ढेर

भर भर मुट्ठियों में
उछालते चिंगारियां
एक दूसरे पर

धंसते गये
कितने गहरे
होड़ ही होड़ में
आग में झुलसती मुट्ठियां
बेताब होतीं खुलने को
प्रश्‍न शांति के सभी
लेट जाते नंगे बदन
बारूदी ढेरों पर

शांति, सपनों में -
करती है चहलकदमी
बेचैन सी
लटक जाती पर।
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बर्बर होना

रोटी लिए
आंगन में रेंगते बच्चे की
मासूमियत ने
चील को सिखाया
झपट्टा मारना।

निर्जीवता ने
उकसाया गिद्धों को
नोच नोचकर
खाने को मांस
मुर्दों का ..... !।

कमजोरी ने
कितना कुछ सिखाया
दुनिया को बर्बर होना
कितना निर्मम है
मासूमों का
बेखबर होना।
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