बुधवार, 8 दिसंबर 2010

कविता


अपनी बात

'सत्य' जितना और जैसा सामने दिखाई देता है, वह प्राय: होता नहीं हैं। परिस्थितियाँ सत्य को न केवल डिगाती हैं बल्कि उसको नचाती भी है। सत्य के आग्रह इतने प्रबल होते हैं कि पतन के रास्ते पर कोई भी समाज कितनी भी दूर क्यों न चला गया हो, सत्य की डोर उसके हाथ से कभी छूटी नहीं है। समय और सत्य के बीच का यह खेल निरंतर एक खोज को जन्म देता रहा है। साहित्य-सृजन इस खोज में शामिल होकर ही अपने को रच पाता है या कहें अस्तित्व का अहसास प्राप्त कर पाता है।
नरम-नरम अमर बेल नन्हें बालक-सी पेड़ से लिपटती है, कौन सोच सकता है कि उसके जीवित, हरे रहने के लिए पेड़ का सूखना भी जरूरी हो जाता है। हम निरीह जन को गिरते देख सहज रूप में हँस पडते है, यानि परपीड़ा में आनंद की अनुभूति...। मनुष्य सदा से ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करता आया है और ऐसे सत्य को बलिदान देकर भी स्थापित करता रहा हैं।
समूचा अस्तित्व शक्ति के साथ संघर्ष की परिणिति है, इसीलिए संघर्ष को सृजन से या जीवन से अलग नहीं किया जा सकता है। इस संघर्ष में, शक्ति के हाथों सत्य का मरना निश्चित रूप से संघर्ष का रास्ता बनाता है और अस्तित्व पाने की राह में यह संघर्ष अवश्यंभावी भी होता है। रचना का संघर्ष से यही रिश्ता होता है…फिर चाहे वह फूल की कोमलता, धूप की गुनगुनाहट और रक्तरंजित युद्ध की वीरगाथा....कुछ भी हो।
'अपनी बात' को यहीं विराम देकर मैं आपके सामने अपनी नयी-पुरानी तीन कवितायें प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा करता हूँ, इन्हें आपका भरपूर स्नेह मिलेगा और आपकी बेवाक टिप्पणी इन रचनाओं को नये अर्थ और नये आयाम देगी।
-सुरेश यादव


सत्य

होगा सत्य
सिद्धांत भी होगा
और अनुभव भी सारे ज़माने का
कि 'पानी आग बुझाता है'
देखा मैंने लेकिन
खुद अपनी आँखों से
दहकते अंगारों पर
जब गिरता पानी बूंद-बूंद
जल जाता है

शक्ति के हाथों
छलते हैं सिद्दांत कैसे
'सत्य' कैसे शक्ति के हाथों मिट जाता है.
महा युद्ध

खाकर कोई केला
फेंकता है छिलका
और
कोई निरपराध
बीच सड़क पर गिरता है
दूर खड़ा कोई जब
जोर-जोर से हँसता है

महायुद्ध
धीरे-धीरे इसी तरह रचता है
फिर कोई
बरसों तक नहीं हँसता है।
अमर बेल

समर्पण की उसकी
अपनी अदा है
लिपटता है इस अदा से
जिस पेड़ पर भी
उसे जड़ से सुखा जाता है
खुद को लेकिन
अमर बेल -सा
हर हाल में हरा रखता है।
००

रविवार, 7 नवंबर 2010

कविता

अपनी बात
हम सभी सृष्टि की विराट पाठशाला में दाख़िला पा चुके हैं। यह अहसास यदि हमें शिक्षार्थी और जिज्ञासु बनाता है तो यह किसी वरदान से कम नहीं है। प्रकृति का हर पाठ हम शिक्षार्थियों की समझ और संवेदना पर निर्भर करता है कि उसे किस रूप में ग्रहण करें। इस विराट पाठशाला का हर एक रूप अपने में सम्पूर्ण, विलक्षण, बहु-आयामी और सृजन को जन्म देने वाला है, इसीलिए अनुकरणीय है। अनुकरण के इन पथों पर हम अपने अस्तित्व के बिखरे ताने-बाने चुन सकते हैं और जीवन की बुनावट में नन्हीं-सी पहल का आनंद प्राप्त कर सकते हैं। कविता, इसी आनंद की खोज की एक प्रक्रिया बन सके तो यह उसकी सार्थकता है और धड़कते हुए जीवन का साथ देने का ऐलान भी है।
मैं अपनी दो कविताओं को इन शब्दों से पूरी तरह मुक्त कर आप को समर्पित कर रहा हूँ। आशा करता हूँ, आप की टिप्पणी और आप के विचार अवश्य प्राप्त होंगे।

पत्थर और नदी -1
पहाड़ों के पत्थर
जब ऊँचाइयों से टूटते हैं
तब - पत्थर बहुत 'टूटते ' हैं
डूब कर भी नदी में
बहना चाहते नहीं
धार से जूझते हैं

विरोध करते हैं - पत्थर
सागर में समर्पित होने का
नदी के साथ

रेशा-रेशा घिस कर
तलहटी में बिछ कर
जकड़ कर धरती को
समर्पित होने से पहले
रेत होना बेहतर समझते हैं।

पत्थर और नदी -2
पत्थर
सीख लेते जब नदी से
दर्प को छोड़ना

नदी के आगोश में आकर जब
भूल जाते
अपने ही दर्प में टूटना

चाहते हैं जब
नदी की धार से खेलना
नदी के साथ बहना

पानी की नर्म उँगलियों का
नर्म स्पर्श पाकर
सम्मान में बिछने लगते हैं
सच में -
श्रृद्धा के मार्ग पर चलने लगते हैं

धीरे-धीरे
पत्थर
शिवलिंग बनने लगते हैं

जल के अर्ध्य फिर
उन पर
श्रृद्धा से चढने लगते हैं।

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

कविता

अपनी बात

कहीं धार्मिक चर्चा चल रही थी कि प्रकृति भी जड़ है। ऐसे धार्मिक मामलों में बहस करना अक्सर बेकार लगता है, क्योंकि जिस धर्म का या उसके पंथ का जो होता है- बस वह उसी का होता है। सारी खिड़कियाँ बंद करके सोचने का ऐसा विश्वास-भरा मार्ग सदियों की पुख्ता ज़मीन पर असीम फैलाव लिए है। यह विस्तार कितना भी व्यापक हो, कविता उसमें कभी नहीं समा सकी है। कविता के इस धर्म की व्यापकता, सोच और संवेदना के रेशे-रेशे तक होती है। सोच इसी लिए कविता में धड़कन की तरह होता है। बंद खिडकियों में कभी जिन्दा धड़कन नहीं होती है, कविता इसी लिए बंद खिडकियों को खोलती रहती है और संवेदना को झकझोरती रहती है। कविता का यह धर्म इतना खुला है कि बस सब के लिए खुला है।
  आशा रहेगी आप की प्रतिक्रिया की और विश्वास रहेगा मजबूत,लिखने  लिखाने का सबके लिए
-सुरेश यादव


पेड़ चलते नहीं

पेड़ ज़मीन पर चलते नहीं
देखा भी नहीं किसी ने
पेड़ों को ज़मीन पर चलते हुए

धूप हो कड़ी और थकन हो अगर
आस पास मिल जाते हैं पेड़ -
सिर के ऊपर पिता के हाथ की तरह 
कहीं माँ की गोद की तरह

आँखें नहीं होती हैं - पेड़ों की
न होते हैं पेड़ों के कान
वक्त के हाथों टूटते आदमी की आवाज़
सुनते हैं पेड़, फिर भी

आँखों देखे इतिहास को बताते हैं पेड़
अपनी देह पर उतार कर
बूढ़े दादा के माथे की झुर्रिओं की तरह

जीत का सन्देश देते हैं पेड़
नर्म जड़ें निकलती हैं जब
चट्टानें तोड़ कर

पेड़ों की अपनी भाषा होती है
धर्म का प्रचार करते हैं पेड़
फूलों में रंग और खुशबू भर कर

गूंगे तो होते नहीं हैं पेड़
बोलते हैं, बतियाते हैं
बसंत हो या पतझर
हर मौसम का गीत गाते हैं पेड़
कभी कोपलों में खिलकर
कभी सूखे पत्तों में झर कर
0

पेड़ और धर्म

बस्ती के हर आँगन में
पेड़ हो बड़ा
खूब हो घना
खुशबूदार फूल हों
फल मीठे आते हों लदकर

छाँव उसकी बड़ी दूर तक जाए
खुशबू की कहानियाँ हो घर-घर

हवा के झोंके में
झरते रहें फल
उठाते-खाते गुजरते रहें राहगीर

ऐसा एक पेड़
बस्ती के हर आँगन में
लगाना ही होगा

लोग
भूल गए हैं धर्म
पेड़ों को बताना ही होगा।
00

शनिवार, 28 अगस्त 2010

अपनी बात








सपने ज़िन्दगी को बुनते हैं या ज़िन्दगी सपनों को बुनती है…एक सवाल जो उलझे हुए खूबसूरत धागों को सुलझाने के सुखद अहसास कि तरह ज़िन्दगी के साथ-साथ चलता है. इस यात्रा की बुनावट इतनी बहुआयामी है जितनी कि सपनों में रंग भरती जिंदगी बहुरंगी होती है. इस बुनावट में साँपों की घुमावदार देह अपने समूचे ज़हरीले पन के साथ शामिल हो जाती है और ज़िन्दगी के रंगों में ज़हर बखूबी घुल जाते हैं. सपनों को लेकिन चाहत के पंख जब जब मिले हैं आसमान के सारे चटक रंग ज़िन्दगी के हिस्से आ गये हैं.
मेरी दो कवितायेँ जिनके जन्म में लगभग बीस साल का अंतर है, आज इस पोस्ट के लिए एक साथ मेरी चेतना के पटल पर आकर खडी हो गई और मैंने नियति पर मुस्कराते हुए आनंद का अनुभव किया. चाहता हूँ, आप की संवेदनामय सहभागिता… चाहता हूँ एक साथ इन कविताओं को प्रस्तुत करने की इजाजत…
-सुरेश यादव

कवितायें

सपना : सांप

बचपन की रातें
घने जंगल सी
सपना - सांप सा

नींद डसी जाती रही बार-बार
काटा रातों का जंगल
खोजा सपना
मिला जहाँ - पत्थरों से मारा
घायल सपना खो जाता रहा हर बार

रातें जवान
फिर से जंगल होने लगीं
सपना फिर से जिन्दा हुआ

सपनों से डरती नहीं अब रात -लेकिन
नींद क्योंकि -
'साँपों' से खेलने लगी है
उम्र अब
धीरे-धीरे
नियति को तौलने लगी है.
0

वह सपनों से प्यार करता है

सितारों-सी चमक
चांदनी-सी खनक
बात ऐसी वह अपनी भाषा में
दिन और रात करता है

हर सुबह
ओस की बूंदों में
सर्द अहसास बन कर वह झरता है

उजाले की तरह
बनी रहे पहचान
हर एक रिश्ते की

वह पिघलता है
घी की तरह
वह बाती की तरह जलता है

तपता है धूप में वह
खुशबू में बिखरता है
उसकी जिद में एक चाहत है
वह सपनों से प्यार करता है !
00

सोमवार, 19 जुलाई 2010

अपनी बात

पिछली पोस्ट पर सृजनशील विद्वानों के महत्वपूर्ण विचार पाकर अभिभूत हुआ हूँ. इनको सहेज कर रखना चाहूँगा. जीवन में बहुत कुछ मूल्यवान होते हुए भी जैसे कि 'भोलापन' या तो खो जाता है अथवा पकड़ से बाहर चला जाता है. सहज रूप में ही इस भोलेपन पर ज्ञान का मजबूत कब्ज़ा हो जाता है. हम सोचते हैं कि ज्ञान के बल पर सारे सुख हमारे पास हैं और विशेष रूप से धर्माचार्यों द्वारा ज्ञान के इसी रूप का प्रचार भी किया भी जाता है. इस 'पाने' और 'खोने' का गणित जीवन की स्लेट पर बहुत साफ़ नहीं लिखा जा सकता है, साहित्य की सच्चाई इसीलिए अपने धुंधले पन में अद्भुत सुन्दरता और विराटता लिए होती है. भोलापन या बचपन इसीलिए जब खोते हैं तो जीवन की नैसर्गिक सुन्दरता खोने लगती है. समूची मनुष्यता के लिए इसके बचाव की कल्पना भी कितने सुखद अहसासों से भरी है. हम सब क्यों न इसके भागीदार बनें ?

मेरी दो कवितायें ‘बचपन का सूरज’ और ‘नन्हीं बच्ची-सी धूप’ इन्हीं अहसासों के आसपास गुजरती हुई महसूस होती हैं और इसीलिए मैं इन्हें प्रस्तुत करने का साहस कर पा रहा हूँ. आप की प्रतिक्रिया पाने की प्रतीक्षा रहेगी.
-सुरेश यादव

कवितायेँ


बचपन का सूरज

बचपन का सूरज
छोटा था
निकल कर तालाब से सुबह-सुबह
पेड़ पर टंग जाता था

खेत पर जाते हुए
टकटकी बाँधे - मैं
देखता रह जाता था

कभी-कभी तो
चलते-चलते रुक कर
खड़ा हो जाता था
बबूल के काँटों में
सूरज को उलझा कर

बैठता जब मेड़ पर
सूरज को फिर
पसरा छोड़ देता
सरसों के खेत पर

कज़री बाग में छिपते हुए सूरज को
फलांगते हुए कच्ची छतें
निकाल कर लाता था बाहर
और जी चाही देर खेल कर
बेचारे सूरज को
डूब जाने देता था - थका जान कर

बचपन का सूरज
छोटा था
मैं भी छोटा था

बड़ा हो गया हूँ
इतना कि मन सब जान गया है

सूरज भी बड़ा हो गया है
इतना कि ‘ठहर गया है’

धरती घूमने लगी है
जबसे - सूरज के चारों ओर
मैं धरती पर घूमने लग जाता हूँ

जब कभी ताकता हूँ अब
‘ठहरा हुआ सूरज’
...डूबने लग जाता हूँ
0


नन्हीं बच्ची-सी धूप

छज्जे पर बैठी
पाँव हिलाती
नन्हीं बच्ची-सी धूप
आँगन में उतरने को बहुत मचलती
सूरज से दिनभर झगरती

शाम होते-होते
हाथ झटक
बेचारी को उठा लेता
रोज निर्दयी सूरज
और धूप अनमनी होकर
हर शाम
उठ कर चली जाती है

शाम धीरे-धीरे गहराती है जैसे
बच्ची रोते-रोते सो जाती है.
00

बुधवार, 16 जून 2010

अपनी बात


अधूरे आदमी को संस्थाएं विकसित करती रहती हैं और इनका दायरा परिवार से लेकर विश्व समाज तक फैला होता है.मनुष्य कभी अपने एकल सोच से और प्रायः सामूहिक सोच से संस्थाओं को निर्मित एवं पोषित करता आया है. इस अनवरत प्रक्रिया में समाज निर्माणरत रहता है. ज्ञान का अभाव, विवेक की चूक और संकल्प की शिथिलता हमें वहां भी पहुंचा देती है जहाँ नियति को हम विवश होकर ढोते हैं. यह व्यक्ति के जीवन में भी होता है और समाज के व्यापक फलक पर भी होता है. हर फसल अपने साथ निर्माण के बीज लाती है जो बार-बार ऐसी फसलों को पनपाते हैं, जहाँ मनुष्य समाज का विवेक और गौरव लहलहाता है. जब जब विवेक धराशाही होता है और विनाशक बीज हमारे बीच पनपते हैं, चिंता स्वाभाविक है. समाज की पहचान और उसकी सभ्यता का आग्रह तो उसकी चिंताएं होती हैं न कि ठहाकों में उड़ाने की प्रवृति.
अन्य बातें फिर कभी. फिलहाल मैं अपनी दो कवितायेँ प्रस्तुत कर आप को अपनी संवेदनाओं का भागीदार बनाने की चाहत लेकर उपस्थित हो रहा हूँ …
-सुरेश यादव


खेलने लगे खिलौने

खिलौने रचे थे - हमने
इस लिए
कि इनसे खेलेंगे

खेलने लगे अपनी मरजी से
लेकिन ये खिलौने
करने लगे मनमानी
बच्चों को खाने लगे बे खौफ
ये खिलौने

बेकाबू हुए हैं जब से ये खिलौने
एक-एक कर हम भूल गए हैं
सारे खेल बदहवासी में
खिलौने अब हमें डराने लगे हैं.
0

इस बस्ती के लोग

भरी बरसात में
बेच डाले हैं अपने छोटे-छोटे घर
खरीद लाये हैं एक बड़ा-सा आकाश
इस बस्ती के लोग

बैठे हैं जिन डालों पर
काटते उन्हीं को दिन-रात
कालिदास होने का भ्रम पाले हुए हैं
इस बस्ती के लोग

अक्सर इनकी चीखों का
इनके दर्दों से कोई रिश्ता नहीं होता
किसी और के जुकाम पर बेहाल होते हैं
इस बस्ती के लोग

चूल्हे - इन्हीं के होते हैं
जिनमें उगती है घास
सहलाते हैं हरापन इसका
थकती नहीं नज़रें इनकी
जाने किस नस्ल के रोमानी हैं
इस बस्ती के लोग.
00

मंगलवार, 18 मई 2010

अपनी बात

मेरी ये दोनों कवितायें 'प्यासे पत्थर' और 'अच्छा आदमी' पच्चीस वर्ष से कम पुरानी नहीं हैं. आज मैं जब यह पोस्ट प्रकाशित करने लगा तो सबसे आगे आकर खड़ी हो गई -पूरे उत्साह के साथ. मुझे लगता है कि समय के साथ जिन्दा रहने की जैसी ललक मनुष्य में होती है - कविताओं तथा साहित्य की अन्य विधाओं में भी होती है. कवितायें मृतप्राय पन्नों पर सोती नहीं हैं, निरंतर समय के साथ अनुभव ग्रहण करती हैं. इस अनुभव की अभिव्यक्ति अपने समय का आदमी या कोई भी पाठक अपनी अनुभूतिपरक व्याख्या से करता है. निरंतर चलती यह प्रक्रिया रचनाकार और रचना के बीच वह रिश्ता है जो एक दुसरे को गढ़ता है. पाठक इसका सर्वाधिक विश्वसनीय गवाह होता है. मैं ऐसे ही सुधी पाठकों के बीच अपनी कविताओं को रख कर दूर हटता हूँ … बेवाक और सच्ची प्रतिक्रिया की उत्सुकता के साथ.
-सुरेश यादव


प्यासे पत्थर

बचपन में
पढ़ी और सुनी थी
प्यासे कौवे की कहानी
जिसने
अधभरे घड़े में
डाले थे कंकर -पत्थर
फिर -
मुहाने तक भर आये पानी को
पिया था जी भर कर

चाहतों के अधभरे घड़े में डाले
मैंने भी
श्रम और वक्त के न जाने कितने पत्थर

पानी का इंतजार किया मेरे भी होठों ने

मुहाने तक आये, लेकिन -चीखते पत्थर
प्यासे थे बहुत जो
और उनमें थी पी जाने की गहरी ललक
खुद मुझको ही - घूंट घूंट कर ।

00

अच्छा आदमी

तुमने मुझे अच्छा आदमी कहा
मैं, काँप गया
हिलती हुई पत्ती पर
थरथराती
ओस की बूँद-सा !

तुमने
मुझे 'अच्छा आदमी' कहा
मैं सिहर उठा
डाल से टूटे
कोट में टंक रहे उस फूल-सा,
जो किसी को अच्छा लगा था।

'अच्छा आदमी' फिर कहा,
तुमने मुझे
और मैं भयभीत हो गया हूँ
भेड़ियों के बीच मेमने-सा
जंगल में जैसे घिर गया हूँ।

'अच्छा आदमी' जब-जब कोई कहता है
बहुत डर लगता है।
00

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

अपनी बात

मित्रो, मेरे इस ब्लॉग पर मेरी कविताओं को पढ़कर आपकी जो प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं, मेरे लिए उन्होंने उत्साह और प्रेरणा का कार्य किया। मैं आभारी हूँ। इस छ्ठी पोस्ट में मैं अपनी तीन कविताएं प्रस्तुत कर रहा हूँ। मेरी ये कविताएं भी आपसे पहले जैसा ही संवेदनात्मक संबंध कायम रख पाएंगी, यह आशा करता हूँ।
-सुरेश यादव


बिछा रहा जब तक


घिरा रहा
शुभ-चिन्तकों से
बिछा रहा
जब तक सड़क सा !

खड़ा हुआ तन कर
एक दिन
अकेला रह गया
दरख़्त-सा !



तिनके में आग
बरसाती मौसम का डर
अधबुना रह न जाए नीड़
चिड़िया को फिकर है

बेचैन हुई उड़ती
इधर से उधर
तिनके जुटाती
जलते चूल्हे से भी
खींचकर ले गई तिनका
बुन रही है
नीड़ में जिसको जल्दी-जल्दी !

आग है तिनके में
और
चिड़िया– आग से बेखबर है
चिड़िया को बस
नीड़ की फिकर है।

वादे

उम्र भर
संग चलने के वादे
कितनी जल्दी थक जाते हैं
दो चार कदम चलते
रुक जाते हैं

ज़िन्दगी की राह
इतनी उबड़-खाबड़ है कि
वादों के नन्हें-नन्हें पांव
डग नहीं भर पाते

कोई भी मोड़
बहाने की तरह
खड़ा मिल जाता है इनको
और
वादे– बहाने की उंगली थाम कर
जाने कहाँ चले जाते हैं।
00

रविवार, 4 अप्रैल 2010

अपनी बात






प्रिय मित्रो . पिछली पोस्टों में आप ने – ‘तुम्हारे हाथों’, ‘सवेरा एक पुल’, ‘शांति के प्रश्न’ ’बर्बर होना’, ‘ज़िन्दगी की लय’, ‘पिंजरा’ और ‘शिकारी का हाथ’ कवितायेँ पढ़ीं. यह पांचवीं पोस्ट अपनी दो कविताओं के साथ आप के सामने ला रहा हूँ -- 'शुरू करो नाटक ' और ‘कटे हाथ’. कुल मिलाकर ये नौ कवितायेँ तीस वर्ष पूर्व रचित एवं प्रकाशित कवितायेँ हैं. समकालीन संवेदना से या कहें सर्वकालीन संवेदना से जुडी होने के अहसास ने आप के सामने रखने को विवश किया और मै आश्वस्त हूँ, आप की संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएं पाकर. आशा करता हूँ, आप की बेबाक टिप्पणी प्राप्त होगी जो एक सार्थक रोशनी का काम करेगी.
-सुरेश यादव

कविताएं


शुरू करो नाटक

भूमिका नहीं
अब -
शुरू करो नाटक
बहुत देर हो चुकी है

दर्शकों की भीड़
रह-रह कर
सीधी करने लगी है अपनी रीढ़
उबाऊ हो चली है

जमुहाई लेते हुए
अंगड़ाते घोड़े की मुद्रा में
कुर्सियों के सहारे खड़े हो रहे हैं दर्शक

बिगड़ाने लगे पात्रों के मेकअप
और वे भूलने लगे अपने संवाद

चरित्र घुलने लगे
एक दूसरे में बेताबी से
भूलने लगे अभिनय अपना

भटकती हुई आशंकाएं अब -
दहशत में बदलने लगी हैं
जल्दी शुरू करो नाटक - अब
मुद्राएँ पात्रों की
मूक संवादों में ढलने लगी हैं
0

कटे हाथ

हर बार
कटे हाथों की प्रदर्शनी में
जो लोग खुश होते हैं
और
हंसी के ठहाके भी लगते हैं

उनके अपने कन्धों पर
होते नहीं अक्सर अपने हाथ
इसी मजबूरी में वे-
तालियाँ नहीं बजा पाते हैं.
झूम झूम कर गाते हैं.
00

गुरुवार, 18 मार्च 2010

अपनी बात

सुधी पाठकों और सजग रचनाकारों ने मेरी कविताओं को मेरे नए ब्लॉग पर जितनी सहजता, सहृदयता से स्वीकार किया है, मैं उन सभी का आभारी हूं। मेरा यह दायित्व है कि रचनाओं का चुनाव करते समय यह ध्यान अवश्य रखूं कि आपका अधिक समय न लूं, साथ ही रचनाएं बोझ बनकर भी आपके सामने न जाएं। मैं इस बार अपनी तीन कविताएं प्रस्तुत कर रहा हूं। आपकी सहज प्रतिक्रिया पाने का आकांक्षी रहूंगा।
- सुरेश यादव



कविताएं

जिन्दगी की लय


कहीं पर खड़ी मौत
मांगती हिसाब
जिए गए
एक-एक दिन का
नहीं तो
मतलब क्या है
मेरे या तुम्हारे-जन्म दिन का !

वह दिन
जो-इस चिड़िया के जन्म का था
उड़ान में भूली
उसे अब
याद कहां आता ?

मौत का अहसास
बहुत गहरे
उसको नहीं सताता

साल को साल से
गांठें लगाकर
इसने नहीं जोड़ा
उम्र को आंकड़ों से नहीं तोड़ा

मौत के भय से
कांपी नहीं
जिन्दगी की लय

साल .....महीने... दिन
....और काल....
सबकी खिल्ली उड़ाती
यह चिड़िया
देखो... उड़ रही है
बिना बधाई के।
0

पिंजरा


तोता
पिंजरे को-पंखों से
अब नहीं खरोंचता

चोंच गड़ाकर
सलाखों को
चटका देने की कोशिश
अब नहीं करता

पंख फड़फड़ाकर
उड़ने की कोशिश में
पिंजरें की सलाखों से टकराकर
गिर-गिर कर
थक कर- बेसुध होने का यत्न नहीं करता

पानी की प्याली को
कभी नहीं ढुरकाता

तन गुलाम था तोते का
आजाद मन सब करता था
मन गुलाम है अब
देखो तो-
खुला हुआ पिंजरा है
बहर-फैला हुआ आकाश
भूलकर भी
तोता
उस ओर नहीं निहारता।
0


शिकारी का हाथ


बहुत शान्त होता है
पानी में
एक टांग खड़ा
बगुला

बहुत शान्त होता है
नंगी डाल पर
गरदन लटकाए बैठा
गिद्ध

बहुत शान्त होता है
बूढ़े कंगूरे पर
चुपचाप बैठा
बाज

बहुत शान्त होता है
निशाना साधते हुए
बंदूक के कुंदे पर
टिका-
शिकारी का हाथ।
00

मंगलवार, 2 मार्च 2010

अपनी बात

यह मेरी तीसरी पोस्ट है। मैं इसमें अपनी दो कवितायेँ आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसके पूर्व मैंने एक-एक कविता प्रस्तुत की थी। आशा है , आप अपने समय का थोडा सा हिस्सा मेरी इन रचनाओं को देकर कृतार्थ करेंगे ।
-सुरेश यादव
कविताएँ
शांति के प्रश्न
अपनी सुरक्षा की खातिर
बनाते आस-पास
बारूदी ढेर

भर भर मुट्ठियों में
उछालते चिंगारियां
एक दूसरे पर

धंसते गये
कितने गहरे
होड़ ही होड़ में
आग में झुलसती मुट्ठियां
बेताब होतीं खुलने को
प्रश्‍न शांति के सभी
लेट जाते नंगे बदन
बारूदी ढेरों पर

शांति, सपनों में -
करती है चहलकदमी
बेचैन सी
लटक जाती पर।
0

बर्बर होना

रोटी लिए
आंगन में रेंगते बच्चे की
मासूमियत ने
चील को सिखाया
झपट्टा मारना।

निर्जीवता ने
उकसाया गिद्धों को
नोच नोचकर
खाने को मांस
मुर्दों का ..... !।

कमजोरी ने
कितना कुछ सिखाया
दुनिया को बर्बर होना
कितना निर्मम है
मासूमों का
बेखबर होना।
0

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

अपनी बात

मित्रो, गणतंत्र दिवस के पावन पर्व पर मैंने अपने इस नए ब्लॉग की शुरुआत की थी। अपने सहधर्मियों को नव वर्ष की काव्य-मय बधाई जिस कविता -तुम्हारे हाथों - के माध्‍यम से दी थी उसने बदले में मुझे बधाइयों से लाद दिया। मैं आप सभी का आभारी हूँ। भाई सुभाष नीरव ने मेरे गद्य को प्रकाशित करने हेतु तो दिनेश राय द्विवेदी जी ने 'यथार्थ की ज़मीन पर रचनात्मक आशावाद’ की उम्मीद की है। अलका सिन्हा ने 'सृजन और विश्वास' के प्रति आश्वस्ति मांगी है। राम शिवमूर्ति जी नए आयाम के प्रति आशान्वित हैं तो भाई बलराम जी सृजन शील आह्वान के प्रति विश्वास लिए हुए हैं। महावीर शर्मा जी ने कविता के आशावाद को अपना आशीर्वाद दिया है। निर्मला कपिला जी ने और रानी विशाल ने क्रमशः 'वंचितों के प्रति समर्पण' तथा शैली की प्रभावशीलता को बनाये रख पाने की शक्ति का संचार किया है। मेरा यह प्रयास रहेगा कि आप सभी की आशाओं पर खरा उतरूं। सर्वश्री मिथिलेश दुबे, समीर लाल, कुलवंत हैप्पी, अभिषेक प्रसाद 'अवि', मुरारी पारीक, कवि कुलवंत, श्यामकोरी 'ई 'उदय' और विशेष रूप से रश्मि प्रभा तथा नन्हीं पाखी का उनकी शुभ कामनाओं के लिए आभारी हूँ ।
यह ब्लॉग मेरी अपनी रचनाओं के लिए ही मित्रों की इच्छा के कारण निर्धारित है। इसलिए अपनी सभी विधाओं की रचनाओं को प्रकाशित करने की अनुमति चाहूँगा। ऐसा प्रयास अवश्य करूँगा कि रचनाएँ आप का समय नष्ट न करें। मेरी चार कवितायेँ प्रस्तुत हैं
--
-सुरेश यादव



सवेरा : एक पुल
सवेरा
तोड़ देता रोज
एक खौफनाक स्‍वप्‍न

जोड़ देता
खौफनाक सवाल

सवेरा -
खतरनाक पुल है
दिन -
इसी पर से
बेखौफ गुजरता रोज।
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मंगलवार, 26 जनवरी 2010

अपनी बात

इकसठवें गणतंत्र दिवस के इस पावन दिवस पर मैं चाहता हूं कि आपकी भावनाओं के साथ जुड़कर राष्‍ट्रीय एकता और मानवता से जुड़े सवालों का साझीदार बन सकूं। सृजन वह माध्‍यम है जो सकारात्‍मक सोच को उजागर करता है और जीवन के सरोकारों को जीवंतता प्रदान करता है। भारतीय गणतंत्र जिस रूप में फल फूल कर हमारे सामने है उसका चेहरा निश्चित रूप से कल्याणकारी मानवतावादी है। जन जन सुखी हो यह कामना किसी भी गणतंत्र की सुखद कामना है, भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला भी यही है। एक कवि के रूप में मैं इस पावन अवसर पर आपके सामने प्रस्‍तुत होकर स्‍वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं।
इस नये वर्ष में प्रस्‍तुत कविता के माध्‍यम से मैं आपके बीच आ गया हूं और आपकी सार्थक टिप्‍पणी मुझे आनंदित करेगी तथा रचनाकर्म में मेरा मार्गदर्शन भी करेगी। आशा है आप मेरे इस ब्‍लॉग के इस पहले अंक को अपनी शुभकामनायें प्रदान कर मुझे कृतार्थ करेंगे।
कविता
नए इस बरस में
सुरेश यादव

नए इस बरस में
तुम्हारे हाथों
सृजन के ऐसे गुल खिलें
कि–
होंठ जो
गीले रहे बीते बरस-भर
सुनहले भोर की
आशा भरी चहक पा
फिर से खिल उठें।

गा उठे हर होंठ
ऐसा गीत लिख दे
साल के माथे पर
धूप की पहली किरण से

रच दे
खुशबू का शिलालेख ऐसा
कि गंध खोया हर फूल
जिसे अपना कहे।

सृज कवि ऐसी कविता
कि अर्थ लय अस्मिता से
बेदख़ल हुआ हर शब्द
उसमें गा सके।

कहीं से कुछ नहीं पाया
जिसने गए बरस-भर
कवि तेरे सृजन में
वह पा सके।
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