सोमवार, 19 जुलाई 2010

अपनी बात

पिछली पोस्ट पर सृजनशील विद्वानों के महत्वपूर्ण विचार पाकर अभिभूत हुआ हूँ. इनको सहेज कर रखना चाहूँगा. जीवन में बहुत कुछ मूल्यवान होते हुए भी जैसे कि 'भोलापन' या तो खो जाता है अथवा पकड़ से बाहर चला जाता है. सहज रूप में ही इस भोलेपन पर ज्ञान का मजबूत कब्ज़ा हो जाता है. हम सोचते हैं कि ज्ञान के बल पर सारे सुख हमारे पास हैं और विशेष रूप से धर्माचार्यों द्वारा ज्ञान के इसी रूप का प्रचार भी किया भी जाता है. इस 'पाने' और 'खोने' का गणित जीवन की स्लेट पर बहुत साफ़ नहीं लिखा जा सकता है, साहित्य की सच्चाई इसीलिए अपने धुंधले पन में अद्भुत सुन्दरता और विराटता लिए होती है. भोलापन या बचपन इसीलिए जब खोते हैं तो जीवन की नैसर्गिक सुन्दरता खोने लगती है. समूची मनुष्यता के लिए इसके बचाव की कल्पना भी कितने सुखद अहसासों से भरी है. हम सब क्यों न इसके भागीदार बनें ?

मेरी दो कवितायें ‘बचपन का सूरज’ और ‘नन्हीं बच्ची-सी धूप’ इन्हीं अहसासों के आसपास गुजरती हुई महसूस होती हैं और इसीलिए मैं इन्हें प्रस्तुत करने का साहस कर पा रहा हूँ. आप की प्रतिक्रिया पाने की प्रतीक्षा रहेगी.
-सुरेश यादव

कवितायेँ


बचपन का सूरज

बचपन का सूरज
छोटा था
निकल कर तालाब से सुबह-सुबह
पेड़ पर टंग जाता था

खेत पर जाते हुए
टकटकी बाँधे - मैं
देखता रह जाता था

कभी-कभी तो
चलते-चलते रुक कर
खड़ा हो जाता था
बबूल के काँटों में
सूरज को उलझा कर

बैठता जब मेड़ पर
सूरज को फिर
पसरा छोड़ देता
सरसों के खेत पर

कज़री बाग में छिपते हुए सूरज को
फलांगते हुए कच्ची छतें
निकाल कर लाता था बाहर
और जी चाही देर खेल कर
बेचारे सूरज को
डूब जाने देता था - थका जान कर

बचपन का सूरज
छोटा था
मैं भी छोटा था

बड़ा हो गया हूँ
इतना कि मन सब जान गया है

सूरज भी बड़ा हो गया है
इतना कि ‘ठहर गया है’

धरती घूमने लगी है
जबसे - सूरज के चारों ओर
मैं धरती पर घूमने लग जाता हूँ

जब कभी ताकता हूँ अब
‘ठहरा हुआ सूरज’
...डूबने लग जाता हूँ
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नन्हीं बच्ची-सी धूप

छज्जे पर बैठी
पाँव हिलाती
नन्हीं बच्ची-सी धूप
आँगन में उतरने को बहुत मचलती
सूरज से दिनभर झगरती

शाम होते-होते
हाथ झटक
बेचारी को उठा लेता
रोज निर्दयी सूरज
और धूप अनमनी होकर
हर शाम
उठ कर चली जाती है

शाम धीरे-धीरे गहराती है जैसे
बच्ची रोते-रोते सो जाती है.
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