बुधवार, 16 जून 2010

अपनी बात


अधूरे आदमी को संस्थाएं विकसित करती रहती हैं और इनका दायरा परिवार से लेकर विश्व समाज तक फैला होता है.मनुष्य कभी अपने एकल सोच से और प्रायः सामूहिक सोच से संस्थाओं को निर्मित एवं पोषित करता आया है. इस अनवरत प्रक्रिया में समाज निर्माणरत रहता है. ज्ञान का अभाव, विवेक की चूक और संकल्प की शिथिलता हमें वहां भी पहुंचा देती है जहाँ नियति को हम विवश होकर ढोते हैं. यह व्यक्ति के जीवन में भी होता है और समाज के व्यापक फलक पर भी होता है. हर फसल अपने साथ निर्माण के बीज लाती है जो बार-बार ऐसी फसलों को पनपाते हैं, जहाँ मनुष्य समाज का विवेक और गौरव लहलहाता है. जब जब विवेक धराशाही होता है और विनाशक बीज हमारे बीच पनपते हैं, चिंता स्वाभाविक है. समाज की पहचान और उसकी सभ्यता का आग्रह तो उसकी चिंताएं होती हैं न कि ठहाकों में उड़ाने की प्रवृति.
अन्य बातें फिर कभी. फिलहाल मैं अपनी दो कवितायेँ प्रस्तुत कर आप को अपनी संवेदनाओं का भागीदार बनाने की चाहत लेकर उपस्थित हो रहा हूँ …
-सुरेश यादव


खेलने लगे खिलौने

खिलौने रचे थे - हमने
इस लिए
कि इनसे खेलेंगे

खेलने लगे अपनी मरजी से
लेकिन ये खिलौने
करने लगे मनमानी
बच्चों को खाने लगे बे खौफ
ये खिलौने

बेकाबू हुए हैं जब से ये खिलौने
एक-एक कर हम भूल गए हैं
सारे खेल बदहवासी में
खिलौने अब हमें डराने लगे हैं.
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इस बस्ती के लोग

भरी बरसात में
बेच डाले हैं अपने छोटे-छोटे घर
खरीद लाये हैं एक बड़ा-सा आकाश
इस बस्ती के लोग

बैठे हैं जिन डालों पर
काटते उन्हीं को दिन-रात
कालिदास होने का भ्रम पाले हुए हैं
इस बस्ती के लोग

अक्सर इनकी चीखों का
इनके दर्दों से कोई रिश्ता नहीं होता
किसी और के जुकाम पर बेहाल होते हैं
इस बस्ती के लोग

चूल्हे - इन्हीं के होते हैं
जिनमें उगती है घास
सहलाते हैं हरापन इसका
थकती नहीं नज़रें इनकी
जाने किस नस्ल के रोमानी हैं
इस बस्ती के लोग.
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