शनिवार, 23 जून 2012

कविता






अपनी बात

मित्रो, मेरे इस ब्लॉग का विलम्ब से प्रकाशित होना लगता है, इसकी नियति हो गई है। ऐसे में यही ठीक है कि जब फुरसत मिले, तभी अपनी कविताओं को लेकर आपके सामने उपस्थित हो जाऊँ और विश्वास रखूँ कि आप को भी अच्छा लगेगा।    
मानसून की देरी और तपते दिन-रातों के बीच की तड़प मुझे मेरी कविता बादल ऐसे छाये तक ले आई। सोचता हूँ कि आदमी के हिंसात्मक रूप का दायरा जीवित मनुष्यों और पशु-पक्षियों के पार जाकर प्रकृति के ऊपर भी छा गया है। ऐसा लगता है कि आदमी और प्रकृति जिन्हें सहचर होना चाहिए, एक-दूसरे के विरुद्ध खड़े हो गए हैं और परस्पर लड़ रहे हैं। आदमी की बुद्धिहीनता और उसके स्वार्थ इसके बीच में हैं। कविता इन सबको बचाने की एक नन्हींसी ईमानदार कोशिश है- आकाश की ओर उठे टिटहरी के पांवों की तरह… बस।

अपनी बात को यहीं छोड़कर निवेदन है कि मेरी इन तीन कविताओं के लिए समय निकालने का कष्ट करें और यदि सम्भव हो तो अपने मन की बात भी सामने रखें, बहुत खुशी होगी…
-सुरेश यादव




बादल ऐसे छाये

इस बार आसमान में
बादल ऐसे आये
सब के सब खाली-खाली
पानी आँखों ने बरसाये

आवाज़ लगाती, प्यासी धरती
सूखे खेत बुलाते
बदचलन हवा  के झोंके  लेकिन
दूर  देश  ले  जाते

ज़हर हवा में तीखा  इतना 
मौसम  सारे  भटकाये 

मस्जिद  में पढ़ी अजानें
मंदिर में दिए जलाये
घुमड़-घुमड़ कर घने दिखे जो
बादल सब छितराये

कुएं,ताल,खेत, सब सूखे
पशु-पक्षी, बच्चे-बूढ़े सब भूखे
सपनों की फसलें सूख गयीं आँखों में
उड़ानें चिड़ियों की
छिप कर बैठ गईं, बंद-बंद पाखों में

सावन के दिन भी तपे खूब
बादल ने अंगारे बरसाये

इस बार आसमान में
बादल ऐसे छाये .


मेले में मुर्गा

एक मेला जो हर साल
लगता है 
मेले में मुर्गा
दूसरे मुर्गे से लड़ता है

तमाशबीन इस लड़ाई में जब
अपनी खुशियाँ तलाशने लगते हैं
और तालियाँ बजाने लगते हैं
तालियों का ऐसा होता है असर
बिना दुश्मनी के भी मासूम मुर्गे
झपटने लगते हैं एक दूसरे पर मौत बनकर

मुर्गों के पावों में
बंधी जाती हैं छुरियां
बहुत पैनी -- धारदार   
तालियों के बीच फिर होती है लड़ाई आर - पार

लहू की बूंदें ,
जितनी ज्यादा गिरती हैं
तालियाँ उतनी जोर से बजती हैं
खून से लथ-पथ  बांग मुर्गे की
फिर हिंसक सवेरों को जगाती है

सभ्यता के आँगन में
आदमी को फिर मुर्गा बनाती है

तारीख उस पर तालियाँ बजाती है.

 
टिटहरी का आकाश

टिटहरी जब
अपने नन्हें-नन्हें पंखों को
उड़ने की खातिर
फैला देती है
इस तरह अपना एक आकाश बना लेती है

टिटहरी
आकाश गिरने के डर से जब
अपने पैरों को ऊपर उठा लेती है
इस तरह
आकाश जितना साहस जुटा लेती है.
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