रविवार, 19 जून 2011

कविता




अपनी बात
मित्रो फिर विलम्ब हुआ है जिसका कारण मेरी व्यस्तता रही है. आपसे मिलने की चाह में कोई कमी नई रही. मुझे विश्वास है की आप अपने कीमती समय में से कुछ पल निकाल कर मेरी इन कविताओ का आश्वादन करेंगे और पहले की भाँति अपनी बेबाक राय देकर मुझे अनुग्रहित करेंगे. प्रतीक्षा रहेगी.
-सुरेश यादव


मेरी संवेदना

तुम्हारी कविता में
बहुत बार
हथेलियों के बीच…
मरी तितलियों का रंग उतरता है

बहुत बार
घायल मोर का पंख
तुम्हारी कविता में रंग भरता है

ऊंचे आकाश में
चिड़िया मासूम कोई जब
बाज़ के पंजों में समाती है
शब्दों की बहादुरी
तुम्हारी कविता में भर जाती है

मेरी संवेदना
जाने क्यों
इन पन्नों पर जाती हुई
शर्माती है।

ज़मीन

मेरी कविताओं की ज़मीन
उस आदमी के भीतर का धीरज है
छिन चुकी है
जिसके पावों की ज़मीन

भुरभुरा-उर्वर किये है
इस ज़मीन को
हरियाते घावों की दुखन

इस ज़मीन का रंग
खून का रंग है
इस ज़मीन की गंध
देह की गंध है
इस ज़मीन का दर्द
आदमी का दर्द है

कुछ नहीं होता जब
ज़मीन पर
तब दर्द की फसल होती है

मैं इसी फसल को
बार बार काटता हूँ
बार बार बोता हूँ

आदमी के रिश्ते को
इस तरह कविता में ढ़ोता हूँ
आदमी को कभी नहीं खोता हूँ।

विश्वास

मन होता जब
बहुत उदास
कविता पास आ जाती
अनायास

सूझती नहीं राह
अँधेरा बहुत घना होता
कविता जलती है दिए -सी
फैलता प्रकाश

जब होता है
हारा हुआ मन
छाई होती -टूटन और थकन

कविता
जगाती आस
बन जाती
आस्था और विश्वास।
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