रविवार, 18 दिसंबर 2011

कविता



अपनी बात
प्रकृति ने मनुष्य को जो कुछ सिखाया है उसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है - आस्था और विश्वास।सूरज तपकर रोशनी देता हो या फिर नदी बहकर जीवन का पोषण करती हो। अंकुराने की चाहत हो या फिर जिजीविषा का संघर्ष…कविता सही अर्थ में जीवन संघर्ष है। इसलिए आस्था का रूप है और प्रकृति के बहुत नज़दीक है। बहुत अच्छा लगता है, कविता के साथ रहना , नदी-सा बहना । जीवन कविता-सा लगता है, कविता जीवन-सी लगती है ।
अपनी पांच कवितायें प्रस्तुत कर रहा हूँ, आप की सहज प्रतिक्रिया की चाहत रहेगी…
-सुरेश यादव


सूरज की तरह

धूप लेकर
सूरज की तरह
रोज - घर से जो निकलते हैं
उनके लिए ही लेकर हाथ में जल
चढाने अर्घ्य
लोग मिलते हैं

देवताओं के सिर
मंदिर में
फ़ूल वे सदा चढाते
रंग और खुशबू लेकर
फूल जो, सबके लिए सरे आम खिलते हैं

मौत कभी छू नहीं पाती
उन शहीदों को
जिंदगी जो अपनी
हवाले वतन के करते हैं।

आस्था की नदी

पानी
जीता है जीवन जब
ऊंचाई के दर्प का
जम जाता है अस्तित्व तब
उसका बर्फ -सा

अहम् की बर्फ
जब-जब पिघलती है
आस्था की नदी
बह निकलती है…

देह की रोशनी

हो जाती है
रात अगर लम्बी बहुत
अँधेरा जब गहराता है
हताशा और निराशा का पहरा
उम्मीदों पर लग जाता है
अर्थ अस्तित्व का प्रश्नों के बीच सिमट जाता है

जलाकर देह को अपनी
एक जुगनूँ तब
अँधेरे के अस्तित्व से टकराता है
रोशनी का वह अर्थ बताता है।


दिल वालों की दिल्ली

आतंकी बम यहाँ फटते हैं
मरते हैं, निरपराध लोग
भर जाता दर्दनाक चीखों से आकाश
रोती बहुत औरतें
बच्चे बहुत बिलखते हैं
रातें दहशत की होती हैं - काली बहुत

हर बार यहाँ लेकिन ये रातें ढलती हैं
इन्हीं के गर्भ में भोर सुनहरी पलती हैं

अपनेपन की नर्म धूप से
बर्फ यहाँ नफ़रत की
हर बार पिघलती है

सपनों के आकाश में
तन जाते हैं इच्छाओं के सतरंगी इंद्रधनुष
संकल्पों का सूरज
फिर चढ़ता है धीरे-धीरे

उडान भरने की खातिर
परिंदों की पाखें धीरे-धीरे खुलती हैं
दिलवालों की यह दिल्ली है
हर हादसे के बाद
दिल्ली की सड़कें गलियां सजती हैं ।

कुछ बोल कविता

शहर
गहरी नींद में सो रहा है
गहरे कुहासे में
हर दृश्य खो रहा है

माहौल की चुप्पी तोड़ कविता
खोल पलकें
उठ बैठ -
कुछ बोल कविता

गूंगे हर शब्द को
आवाज़ दे
पूरे जोर से झकझोर
संवेदना का द्वार
हर बंद खिड़की
अपने हाथों -खोल कविता
कुछ बोल कविता।
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