शनिवार, 16 नवंबर 2013

कविता



अपनी बात
मित्रो, एक लम्बे अंतराल के बाद जब आपके सामने प्रस्तुत होने का मन हुआ तो मस्तिष्क में कुछ पुरानी छोटी-छोटी कविताएं तैरने लगीं। उन्हें आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। आपकी प्रतिक्रिया पाने कि उत्सुकता रहेगी।
-सुरेश यादव


धूप का दर्द

धुप का भी
दर्द होता तब-
आँखों में
जब-
ताज़गी के नशे में
फैलती -
बह की धूप
और
आँखें -थकी रात भर की
समेटे कडुवापन
अधखुली रह जाती !



किसने

हलकी-हलकी थपकियाँ देकर
गहरी नींद का
उपहार दिया-किसने ?

महीन धागों से फिर सी डाले होंठ
बदल डाला मौन
स्वीकृति की मोहर में- किसने ?


इस बार

कटें हाथो की प्रदर्शनी में
जिन्होंने-
ख़ुशी का ठहाका लगाया- इस बार

हाथ उनके कंधो पर नहीं थे 
वर्ना-
तालियां भी बजाते - बार-बार


टूटता बच्चा

पटक कर फर्श पर
खिलौना,
तोड़ता है बच्चा
तब खिलौना ही टूटता है

फिसल कर हाथ  से
गिरता फर्श पर
खिलौना जब टूटता है
बच्चा भी टूटता है


कोई चाह

भूला नहीं हूँ मैं -
हँसना-अभी तक
कोई चाह हीं बच रही होगी

किसी चिड़ियाँ के
बीट किये बीज से
दीवार की दरकन में
न्हें नीम-सी उग रही होगी



बिछा रहा

घिरा रहा शुभचिंतकों से
बिछा रहा
जब तक- सड़क सा !

खड़ा हुआ तन कर
एक दिन
अकेला रह गया
दरख़्त- सा !!


पाले नहीं नेवले

चर्चाओं के विषय
बन रहे थे
सांप गलियों के
तब तो पालें नहीं घरो में नेवले

चौखट पर- जब
पटके जा रहे
सांपो के फन
बहस में उलझे है बावले।
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