शनिवार, 24 अप्रैल 2010

अपनी बात

मित्रो, मेरे इस ब्लॉग पर मेरी कविताओं को पढ़कर आपकी जो प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं, मेरे लिए उन्होंने उत्साह और प्रेरणा का कार्य किया। मैं आभारी हूँ। इस छ्ठी पोस्ट में मैं अपनी तीन कविताएं प्रस्तुत कर रहा हूँ। मेरी ये कविताएं भी आपसे पहले जैसा ही संवेदनात्मक संबंध कायम रख पाएंगी, यह आशा करता हूँ।
-सुरेश यादव


बिछा रहा जब तक


घिरा रहा
शुभ-चिन्तकों से
बिछा रहा
जब तक सड़क सा !

खड़ा हुआ तन कर
एक दिन
अकेला रह गया
दरख़्त-सा !



तिनके में आग
बरसाती मौसम का डर
अधबुना रह न जाए नीड़
चिड़िया को फिकर है

बेचैन हुई उड़ती
इधर से उधर
तिनके जुटाती
जलते चूल्हे से भी
खींचकर ले गई तिनका
बुन रही है
नीड़ में जिसको जल्दी-जल्दी !

आग है तिनके में
और
चिड़िया– आग से बेखबर है
चिड़िया को बस
नीड़ की फिकर है।

वादे

उम्र भर
संग चलने के वादे
कितनी जल्दी थक जाते हैं
दो चार कदम चलते
रुक जाते हैं

ज़िन्दगी की राह
इतनी उबड़-खाबड़ है कि
वादों के नन्हें-नन्हें पांव
डग नहीं भर पाते

कोई भी मोड़
बहाने की तरह
खड़ा मिल जाता है इनको
और
वादे– बहाने की उंगली थाम कर
जाने कहाँ चले जाते हैं।
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रविवार, 4 अप्रैल 2010

अपनी बात






प्रिय मित्रो . पिछली पोस्टों में आप ने – ‘तुम्हारे हाथों’, ‘सवेरा एक पुल’, ‘शांति के प्रश्न’ ’बर्बर होना’, ‘ज़िन्दगी की लय’, ‘पिंजरा’ और ‘शिकारी का हाथ’ कवितायेँ पढ़ीं. यह पांचवीं पोस्ट अपनी दो कविताओं के साथ आप के सामने ला रहा हूँ -- 'शुरू करो नाटक ' और ‘कटे हाथ’. कुल मिलाकर ये नौ कवितायेँ तीस वर्ष पूर्व रचित एवं प्रकाशित कवितायेँ हैं. समकालीन संवेदना से या कहें सर्वकालीन संवेदना से जुडी होने के अहसास ने आप के सामने रखने को विवश किया और मै आश्वस्त हूँ, आप की संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएं पाकर. आशा करता हूँ, आप की बेबाक टिप्पणी प्राप्त होगी जो एक सार्थक रोशनी का काम करेगी.
-सुरेश यादव

कविताएं


शुरू करो नाटक

भूमिका नहीं
अब -
शुरू करो नाटक
बहुत देर हो चुकी है

दर्शकों की भीड़
रह-रह कर
सीधी करने लगी है अपनी रीढ़
उबाऊ हो चली है

जमुहाई लेते हुए
अंगड़ाते घोड़े की मुद्रा में
कुर्सियों के सहारे खड़े हो रहे हैं दर्शक

बिगड़ाने लगे पात्रों के मेकअप
और वे भूलने लगे अपने संवाद

चरित्र घुलने लगे
एक दूसरे में बेताबी से
भूलने लगे अभिनय अपना

भटकती हुई आशंकाएं अब -
दहशत में बदलने लगी हैं
जल्दी शुरू करो नाटक - अब
मुद्राएँ पात्रों की
मूक संवादों में ढलने लगी हैं
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कटे हाथ

हर बार
कटे हाथों की प्रदर्शनी में
जो लोग खुश होते हैं
और
हंसी के ठहाके भी लगते हैं

उनके अपने कन्धों पर
होते नहीं अक्सर अपने हाथ
इसी मजबूरी में वे-
तालियाँ नहीं बजा पाते हैं.
झूम झूम कर गाते हैं.
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