शनिवार, 28 अगस्त 2010

अपनी बात








सपने ज़िन्दगी को बुनते हैं या ज़िन्दगी सपनों को बुनती है…एक सवाल जो उलझे हुए खूबसूरत धागों को सुलझाने के सुखद अहसास कि तरह ज़िन्दगी के साथ-साथ चलता है. इस यात्रा की बुनावट इतनी बहुआयामी है जितनी कि सपनों में रंग भरती जिंदगी बहुरंगी होती है. इस बुनावट में साँपों की घुमावदार देह अपने समूचे ज़हरीले पन के साथ शामिल हो जाती है और ज़िन्दगी के रंगों में ज़हर बखूबी घुल जाते हैं. सपनों को लेकिन चाहत के पंख जब जब मिले हैं आसमान के सारे चटक रंग ज़िन्दगी के हिस्से आ गये हैं.
मेरी दो कवितायेँ जिनके जन्म में लगभग बीस साल का अंतर है, आज इस पोस्ट के लिए एक साथ मेरी चेतना के पटल पर आकर खडी हो गई और मैंने नियति पर मुस्कराते हुए आनंद का अनुभव किया. चाहता हूँ, आप की संवेदनामय सहभागिता… चाहता हूँ एक साथ इन कविताओं को प्रस्तुत करने की इजाजत…
-सुरेश यादव

कवितायें

सपना : सांप

बचपन की रातें
घने जंगल सी
सपना - सांप सा

नींद डसी जाती रही बार-बार
काटा रातों का जंगल
खोजा सपना
मिला जहाँ - पत्थरों से मारा
घायल सपना खो जाता रहा हर बार

रातें जवान
फिर से जंगल होने लगीं
सपना फिर से जिन्दा हुआ

सपनों से डरती नहीं अब रात -लेकिन
नींद क्योंकि -
'साँपों' से खेलने लगी है
उम्र अब
धीरे-धीरे
नियति को तौलने लगी है.
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वह सपनों से प्यार करता है

सितारों-सी चमक
चांदनी-सी खनक
बात ऐसी वह अपनी भाषा में
दिन और रात करता है

हर सुबह
ओस की बूंदों में
सर्द अहसास बन कर वह झरता है

उजाले की तरह
बनी रहे पहचान
हर एक रिश्ते की

वह पिघलता है
घी की तरह
वह बाती की तरह जलता है

तपता है धूप में वह
खुशबू में बिखरता है
उसकी जिद में एक चाहत है
वह सपनों से प्यार करता है !
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