अपनी बात
'सत्य' जितना और जैसा सामने दिखाई देता है, वह प्राय: होता नहीं हैं। परिस्थितियाँ सत्य को न केवल डिगाती हैं बल्कि उसको नचाती भी है। सत्य के आग्रह इतने प्रबल होते हैं कि पतन के रास्ते पर कोई भी समाज कितनी भी दूर क्यों न चला गया हो, सत्य की डोर उसके हाथ से कभी छूटी नहीं है। समय और सत्य के बीच का यह खेल निरंतर एक खोज को जन्म देता रहा है। साहित्य-सृजन इस खोज में शामिल होकर ही अपने को रच पाता है या कहें अस्तित्व का अहसास प्राप्त कर पाता है।
नरम-नरम अमर बेल नन्हें बालक-सी पेड़ से लिपटती है, कौन सोच सकता है कि उसके जीवित, हरे रहने के लिए पेड़ का सूखना भी जरूरी हो जाता है। हम निरीह जन को गिरते देख सहज रूप में हँस पडते है, यानि परपीड़ा में आनंद की अनुभूति...। मनुष्य सदा से ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करता आया है और ऐसे सत्य को बलिदान देकर भी स्थापित करता रहा हैं।
समूचा अस्तित्व शक्ति के साथ संघर्ष की परिणिति है, इसीलिए संघर्ष को सृजन से या जीवन से अलग नहीं किया जा सकता है। इस संघर्ष में, शक्ति के हाथों सत्य का मरना निश्चित रूप से संघर्ष का रास्ता बनाता है और अस्तित्व पाने की राह में यह संघर्ष अवश्यंभावी भी होता है। रचना का संघर्ष से यही रिश्ता होता है…फिर चाहे वह फूल की कोमलता, धूप की गुनगुनाहट और रक्तरंजित युद्ध की वीरगाथा....कुछ भी हो।
'अपनी बात' को यहीं विराम देकर मैं आपके सामने अपनी नयी-पुरानी तीन कवितायें प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा करता हूँ, इन्हें आपका भरपूर स्नेह मिलेगा और आपकी बेवाक टिप्पणी इन रचनाओं को नये अर्थ और नये आयाम देगी।
-सुरेश यादव
'सत्य' जितना और जैसा सामने दिखाई देता है, वह प्राय: होता नहीं हैं। परिस्थितियाँ सत्य को न केवल डिगाती हैं बल्कि उसको नचाती भी है। सत्य के आग्रह इतने प्रबल होते हैं कि पतन के रास्ते पर कोई भी समाज कितनी भी दूर क्यों न चला गया हो, सत्य की डोर उसके हाथ से कभी छूटी नहीं है। समय और सत्य के बीच का यह खेल निरंतर एक खोज को जन्म देता रहा है। साहित्य-सृजन इस खोज में शामिल होकर ही अपने को रच पाता है या कहें अस्तित्व का अहसास प्राप्त कर पाता है।
नरम-नरम अमर बेल नन्हें बालक-सी पेड़ से लिपटती है, कौन सोच सकता है कि उसके जीवित, हरे रहने के लिए पेड़ का सूखना भी जरूरी हो जाता है। हम निरीह जन को गिरते देख सहज रूप में हँस पडते है, यानि परपीड़ा में आनंद की अनुभूति...। मनुष्य सदा से ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करता आया है और ऐसे सत्य को बलिदान देकर भी स्थापित करता रहा हैं।
समूचा अस्तित्व शक्ति के साथ संघर्ष की परिणिति है, इसीलिए संघर्ष को सृजन से या जीवन से अलग नहीं किया जा सकता है। इस संघर्ष में, शक्ति के हाथों सत्य का मरना निश्चित रूप से संघर्ष का रास्ता बनाता है और अस्तित्व पाने की राह में यह संघर्ष अवश्यंभावी भी होता है। रचना का संघर्ष से यही रिश्ता होता है…फिर चाहे वह फूल की कोमलता, धूप की गुनगुनाहट और रक्तरंजित युद्ध की वीरगाथा....कुछ भी हो।
'अपनी बात' को यहीं विराम देकर मैं आपके सामने अपनी नयी-पुरानी तीन कवितायें प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा करता हूँ, इन्हें आपका भरपूर स्नेह मिलेगा और आपकी बेवाक टिप्पणी इन रचनाओं को नये अर्थ और नये आयाम देगी।
-सुरेश यादव
सत्य
होगा सत्य
सिद्धांत भी होगा
और अनुभव भी सारे ज़माने का
कि 'पानी आग बुझाता है'
देखा मैंने लेकिन
खुद अपनी आँखों से
दहकते अंगारों पर
जब गिरता पानी बूंद-बूंद
जल जाता है
शक्ति के हाथों
छलते हैं सिद्दांत कैसे
'सत्य' कैसे शक्ति के हाथों मिट जाता है.
०
होगा सत्य
सिद्धांत भी होगा
और अनुभव भी सारे ज़माने का
कि 'पानी आग बुझाता है'
देखा मैंने लेकिन
खुद अपनी आँखों से
दहकते अंगारों पर
जब गिरता पानी बूंद-बूंद
जल जाता है
शक्ति के हाथों
छलते हैं सिद्दांत कैसे
'सत्य' कैसे शक्ति के हाथों मिट जाता है.
०
महा युद्ध
खाकर कोई केला
फेंकता है छिलका
और
कोई निरपराध
बीच सड़क पर गिरता है
दूर खड़ा कोई जब
जोर-जोर से हँसता है
महायुद्ध
धीरे-धीरे इसी तरह रचता है
फिर कोई
बरसों तक नहीं हँसता है।
खाकर कोई केला
फेंकता है छिलका
और
कोई निरपराध
बीच सड़क पर गिरता है
दूर खड़ा कोई जब
जोर-जोर से हँसता है
महायुद्ध
धीरे-धीरे इसी तरह रचता है
फिर कोई
बरसों तक नहीं हँसता है।
०
9 टिप्पणियां:
नमस्कार ! दोनों ही अच्छी कविताए लगी , साधुवाद
जहां तक मेरी समझ जाती है तीनों कविताएं कहती हैं कि मुहावरों, कहावतों और लोकोक्तियों से परे भी कोई सत्य या तथ्य हो सकता है जिसे देखने में हम कई बार चूक जाते हैं।
सुरेश भाई बधाई अच्छी कविताएं हैं। खूब लिखें।
सभी रचनाये बहुत बढ़िया है। बधाई स्वीकारें।
behad khoobsurat kavitayen hain.ekdam anoothi.
आदरणीय सुरेश यादव जी
सादर अभिवादन !
जितनी श्रेष्ठ कविताएं हैं, उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका …
साधुवाद !
'सत्य' कैसे शक्ति के हाथों मिट जाता है
ओह ! बिल्कुल सच है यह तो !
समर्पण की उसकी
अपनी अदा है
… बिल्कुल हसीनों की तरह !
… मुस्कुरा कर फ़िदा हो जाए तो जान ही ले'कर छोड़े :)
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
१९ दिसंबर को बड़ी अविस्मरनीय मुलाकात थी . सभी ब्लोगर मित्रो से मिलकर अपार खुशी हुई .आप सबका मिलना मेरे लिए सौभाग्य का विषय है , मुझे यह जानकर बड़ी ख़ुशी हुई कि ब्लोगर अब समाज हित की बात सोंच रहे है . हमारे समाज में ब्याप्त बुराइयों ,कुरीतियों के अलावा संसकृति में आई नई विकृति की ओर ध्यान आकर्षित करने का ऐतिहासिक निर्णय देश के नव-निर्माण में मिल का पत्थर साबित होगा . धन्यवाद !
itnii sundar kavitaon ke liye badhai sawekar karen
महायुद्ध
धीरे-धीरे इसी तरह रचता है
फिर कोई
बरसों तक नहीं हँसता है....
अच्छी पंक्तियां, अच्छी कविताएं ...बधाई स्वीकारें।
एक टिप्पणी भेजें