पिछली पोस्ट पर सृजनशील विद्वानों के महत्वपूर्ण विचार पाकर अभिभूत हुआ हूँ. इनको सहेज कर रखना चाहूँगा. जीवन में बहुत कुछ मूल्यवान होते हुए भी जैसे कि 'भोलापन' या तो खो जाता है अथवा पकड़ से बाहर चला जाता है. सहज रूप में ही इस भोलेपन पर ज्ञान का मजबूत कब्ज़ा हो जाता है. हम सोचते हैं कि ज्ञान के बल पर सारे सुख हमारे पास हैं और विशेष रूप से धर्माचार्यों द्वारा ज्ञान के इसी रूप का प्रचार भी किया भी जाता है. इस 'पाने' और 'खोने' का गणित जीवन की स्लेट पर बहुत साफ़ नहीं लिखा जा सकता है, साहित्य की सच्चाई इसीलिए अपने धुंधले पन में अद्भुत सुन्दरता और विराटता लिए होती है. भोलापन या बचपन इसीलिए जब खोते हैं तो जीवन की नैसर्गिक सुन्दरता खोने लगती है. समूची मनुष्यता के लिए इसके बचाव की कल्पना भी कितने सुखद अहसासों से भरी है. हम सब क्यों न इसके भागीदार बनें ?
मेरी दो कवितायें ‘बचपन का सूरज’ और ‘नन्हीं बच्ची-सी धूप’ इन्हीं अहसासों के आसपास गुजरती हुई महसूस होती हैं और इसीलिए मैं इन्हें प्रस्तुत करने का साहस कर पा रहा हूँ. आप की प्रतिक्रिया पाने की प्रतीक्षा रहेगी.
-सुरेश यादव
कवितायेँ
बचपन का सूरज
बचपन का सूरज
छोटा था
निकल कर तालाब से सुबह-सुबह
पेड़ पर टंग जाता था
खेत पर जाते हुए
टकटकी बाँधे - मैं
देखता रह जाता था
कभी-कभी तो
चलते-चलते रुक कर
खड़ा हो जाता था
बबूल के काँटों में
सूरज को उलझा कर
बैठता जब मेड़ पर
सूरज को फिर
पसरा छोड़ देता
सरसों के खेत पर
कज़री बाग में छिपते हुए सूरज को
फलांगते हुए कच्ची छतें
निकाल कर लाता था बाहर
और जी चाही देर खेल कर
बेचारे सूरज को
डूब जाने देता था - थका जान कर
बचपन का सूरज
छोटा था
मैं भी छोटा था
बड़ा हो गया हूँ
इतना कि मन सब जान गया है
सूरज भी बड़ा हो गया है
इतना कि ‘ठहर गया है’
धरती घूमने लगी है
जबसे - सूरज के चारों ओर
मैं धरती पर घूमने लग जाता हूँ
जब कभी ताकता हूँ अब
‘ठहरा हुआ सूरज’
...डूबने लग जाता हूँ
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नन्हीं बच्ची-सी धूप
छज्जे पर बैठी
पाँव हिलाती
नन्हीं बच्ची-सी धूप
आँगन में उतरने को बहुत मचलती
सूरज से दिनभर झगरती
शाम होते-होते
हाथ झटक
बेचारी को उठा लेता
रोज निर्दयी सूरज
और धूप अनमनी होकर
हर शाम
उठ कर चली जाती है
शाम धीरे-धीरे गहराती है जैसे
बच्ची रोते-रोते सो जाती है.
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20 टिप्पणियां:
एक बार रविशंकर जी से एक साक्षात्कार में साक्षात्कर्ता ने सवाल किया, आप की उम्र कितनी है? आप की कवितायें पढते हुए उनका जवाब याद आ गया। जानते हैं उनका क्या जवाब था? मैं एक ऐसा बच्चा हूं जो बड़ा हुआ ही नहीं। नहीं कह सकता कि रविशंकर जी का जवाब उन पर कितना सही है पर एक बात बिलकुल सही है कि हम अगर उम्र में बड़े होकर भी स्वभाव में बच्चे रह पाते तो बहुत सारी कठिनाइयां पैदा नहीं होती। अच्छी रचनाओं के लिये साधुवाद।
बचपन की परिकल्पना का जवाब नही होता हमें हर छोटी बड़ी चीज़ें बहुत भाती है..बचपन के सूरज को कविता में बहुत खूबसूरत ढंग से व्यक्त लिया आपने..शब्द और भावनाओं का बहुत ही सुंदर समायोजन...
सुंदर रचना के लिए बधाई..
दूसरी रचना भी बेहतरीन..बढ़िया रचना के लिए धन्यवाद...
बहुत प्यारी और हृदयस्पर्शी लगी दोनों कवितायेँ. मन बचपन में लौट आया.
दोनों ही रचनायें अच्छी लगीं .....बधाई सुरेश जी .....!!
sundar hain is bastee ke log ,nanheen see dhoop ! badhaaee !
Rekha Maitra
rekha.maitra@gmail.com
DONO KAVITAAYEN HRIDAYSPARSHEE HAIN.SEEDHEE -SAADEE BHASHA MEIN
SEEDHE -SAADE BHAAV HON TO HRIDAY
KO SPARSH KARENGE HEE.ACHCHHEE
KAVITAAON KE LIYE BADHAAEE AUR
SHUBH KAMNA.
बचपन का सूरज और नन्ही बच्ची सी धुप. दोनों कवितायें बेहद अच्छी है. नए तरह का विम्ब है. नई कल्पना है. कविता में मासूमियत है.. पढ़ कर अच्छा लगा .. इन्तजार रहता है आपकी कविताओं का .
बहुत समय बाद आई और एक साथ कई पोस्ट पढ़ गई | बहुत ही अच्छी कवितायेँ !
इला
दोनों ही रच्नायेहं बेहतरीन...द्वितीय रचना में चित्रात्मकता और बिम्ब बेहद खूबसूरत लगे..आभार !
Yaar Suresh,
Bahut sundar kavitayen. Badhai.
Chandel
suresh jee
pranam !
dono hi rahnaaye masoom hai man ko choone wali .
sadhuwad
अच्छा लगता है जब एक कवि अपनी कविताओं से पूर्व अपनी सोच को भी पाठकों के संग इस रूप में साझा करता है कि वह प्रस्तुत कविताओं के मर्म तक बड़ी सहजता और सरलता से पहुँच जाता है। आपकी कविताएं भी बहुत सहज दीखती है परन्तु उनमें विचारात्मक दृष्टि और मानवीय संवेदना का मिला जुला स्फुटन पाठक को विचार, दृष्टि और संवेदना के धरातल पर बांधने में प्रभावकारी बन जाता है। बधाई !
जब कभी ताकता हूँ अब
‘ठहरा हुआ सूरज’
...डूबने लग जाता हूँ
.......यथार्थ भले कुछ भी हो....आपका यह डूबना हो बचपन के उस छोटे से सूरज को खोजने के लिए............और आपकी खुबसूरत रचनाशीलता की सरोवर में डूबते रहें हम भी .........
बचपन का सूरज और नन्ही बच्ची सी धूप.... दोनों कवितायें बेजोड़ हैं...बधाई.
सुरेश यादव की कविताएँ मन को कहीं दूर ले जाकर सुधियों के सरोवर में अवगाहन की जादुई शक्ति रखती हैं।
Priya bhai Suresh jee ye dono rachnaen bahut hii prabhavshalee hain aapne jis tarah se inn kavitaon ke madhyam se apni pripakv soch ko "bhachpan ke suraj tatha nanhee bachchi see dhoop" se prichya karwaaya hai veh adhbhut hai,badhai.
Nanhi bachhi si dhup .eak aisi upma ha jo rachna ko bar-2 bar padhne ko periat karti ha...dono hi rachnayen kayi bar padhi bahut khubsurat bhav..aapko bahut-2 badhai...
_आज मैं चिंतन को कुरेदने वाले विचार-बीजों की तलाश करता हुआ आपके ब्लॉग पर आ पहुँचा!
_आपने रचनाओं के साथ जो प्राक्कथन जोड़े हैं, अत्यन्त सारगर्भित हैं... आपके व्यक्तित्व एवं सृजनात्मकता को समझने की दिशा में बहुत उपयोगी भी...इनसे आपकी इन संदर्भित रचनाओं की भाव-पर्तें खोलने में मदद ही मिल रही है!
_ऊपर की प्रथम कविता से लेकर इस कविता तक पढ़कर जो एक छवि मेरे मन में बनी है, वह मुझे इस बात के लिए प्रेरित कर रही है कि मैं आपको ‘हार्दिक साधुवाद’ दूँ...सो स्वीकार करें!
_प्रथम पोस्ट का प्राक्कथन पढ़कर मुझे अरस्तू का एक कथन याद आ गया: "समस्त कलाएँ प्रकृति की अनुकृतियाँ हैं!" आपकी अध्ययनशीलता और चिंतनशीलता के संकेत पग-पग पर बिखरे पड़े हैं।
_आपकी परिमार्जितन व शुद्ध भाषा ने मुझे विशेष रूप से प्रभावित किया...इसके लिए भी ‘बधाई’!दिए बिना चला जाऊँ, तो यह मेरी कृपणता होगी!
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