बुधवार, 8 दिसंबर 2010

कविता


अपनी बात

'सत्य' जितना और जैसा सामने दिखाई देता है, वह प्राय: होता नहीं हैं। परिस्थितियाँ सत्य को न केवल डिगाती हैं बल्कि उसको नचाती भी है। सत्य के आग्रह इतने प्रबल होते हैं कि पतन के रास्ते पर कोई भी समाज कितनी भी दूर क्यों न चला गया हो, सत्य की डोर उसके हाथ से कभी छूटी नहीं है। समय और सत्य के बीच का यह खेल निरंतर एक खोज को जन्म देता रहा है। साहित्य-सृजन इस खोज में शामिल होकर ही अपने को रच पाता है या कहें अस्तित्व का अहसास प्राप्त कर पाता है।
नरम-नरम अमर बेल नन्हें बालक-सी पेड़ से लिपटती है, कौन सोच सकता है कि उसके जीवित, हरे रहने के लिए पेड़ का सूखना भी जरूरी हो जाता है। हम निरीह जन को गिरते देख सहज रूप में हँस पडते है, यानि परपीड़ा में आनंद की अनुभूति...। मनुष्य सदा से ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करता आया है और ऐसे सत्य को बलिदान देकर भी स्थापित करता रहा हैं।
समूचा अस्तित्व शक्ति के साथ संघर्ष की परिणिति है, इसीलिए संघर्ष को सृजन से या जीवन से अलग नहीं किया जा सकता है। इस संघर्ष में, शक्ति के हाथों सत्य का मरना निश्चित रूप से संघर्ष का रास्ता बनाता है और अस्तित्व पाने की राह में यह संघर्ष अवश्यंभावी भी होता है। रचना का संघर्ष से यही रिश्ता होता है…फिर चाहे वह फूल की कोमलता, धूप की गुनगुनाहट और रक्तरंजित युद्ध की वीरगाथा....कुछ भी हो।
'अपनी बात' को यहीं विराम देकर मैं आपके सामने अपनी नयी-पुरानी तीन कवितायें प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा करता हूँ, इन्हें आपका भरपूर स्नेह मिलेगा और आपकी बेवाक टिप्पणी इन रचनाओं को नये अर्थ और नये आयाम देगी।
-सुरेश यादव


सत्य

होगा सत्य
सिद्धांत भी होगा
और अनुभव भी सारे ज़माने का
कि 'पानी आग बुझाता है'
देखा मैंने लेकिन
खुद अपनी आँखों से
दहकते अंगारों पर
जब गिरता पानी बूंद-बूंद
जल जाता है

शक्ति के हाथों
छलते हैं सिद्दांत कैसे
'सत्य' कैसे शक्ति के हाथों मिट जाता है.
महा युद्ध

खाकर कोई केला
फेंकता है छिलका
और
कोई निरपराध
बीच सड़क पर गिरता है
दूर खड़ा कोई जब
जोर-जोर से हँसता है

महायुद्ध
धीरे-धीरे इसी तरह रचता है
फिर कोई
बरसों तक नहीं हँसता है।
अमर बेल

समर्पण की उसकी
अपनी अदा है
लिपटता है इस अदा से
जिस पेड़ पर भी
उसे जड़ से सुखा जाता है
खुद को लेकिन
अमर बेल -सा
हर हाल में हरा रखता है।
००