अपनी बात
जिनके मन में बच्चे होते हैं, उनके हृदय मासूमियत से भरे होते हैं। हैवानियत के लिए फिर कोई स्थान नहीं बचता है। आज समाज में चारों तरफ जो हैवानियत है, कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे भीतर का वह मासूम बच्चा इतना बड़ा हो गया हो कि बुद्धिपूर्ण और चतुराई भरे वातावरण में हमारी संवेदना की ताज़गी, टटकापन और उसकी बाल सुलभ निश्छलता झुलस गयी हो, कहीं ऐसा तो नहीं फूलों की खुशबू, निश्चल किलकारी और मासूम रंगों का अस्तित्व मिटा कर हिंसा और दरिंदगी अपने पैर पसारने का उपक्रम कर रही हो, इन तमाम सवालों से कविता सबसे पहले जूझती है। इस लिए भी कि आदमी से कविता का रिश्ता सबसे नजदीकी का है। यदि यह रिश्ता बना रहा तो समाज निश्चित रूप से सृजन करता रहेगा और विध्वंस के दांत खट्टे करता रहेगा। आखिर, आशा और विश्वास ही तो जीवन के मजबूत आधार होते हैं, और कविता इन्हें पहचानती है ...हम कविता को पहचानते रहें , हम आदमी के बहुत करीब रहेंगे …
महज़ दो कवितायें दे कर आप की संवेदना का साझीदार बनने हेतु प्रयास कर रहा हूँ…आप की प्रतिक्रियाएं मुझमें समझ और विवेक पैदा करेंगी, धन्यवाद।
-सुरेश यादव
दिल में बच्चे
जब - खुलकर हँसते हैं
फूलों से भर जाती खुशबू
रंग फूलों में खिलते हैं
आँगन में
जब जब शोर मचाती
इन बच्चों की किलकारी
चटख रंगों की
फागुन में जैसे
मौसम की पिचकारी
हँसते - गाते धूम मचाते
दिल को दिल की राह बताते
बैर-भाव सब भूल भालकर
रोज़ गले सब मिलते हैं
बच्चे जिनके दिल में बसते हैं।
माँ कभी नहीं मरती
इस घर की तब -
'सुबह' उठती है
माँ जब कभी थकती है
इस घर की
शाम ढलती है
पीस कर खुद को
हाथ की चक्की में
आटा बटोरती
हँस-हँस कर - माँ
हमने देखा है
जोर जोर से चलाती है मथानी
खुद को मथती है - माँ
और
माथे की झुर्रियों में उलझे हुए
सवालों को सुलझा लेती है
माखन की तरह
उतार लेती है - घर भर के लिए
माँ - मरने के बाद भी
कभी नहीं मरती है
घर को जिसने बनाया एक मन्दिर
पूजा की थाली का घी
कभी वह
आरती के दिए की बाती बनकर जलती है
घर के आँगन में
हर सुबह
हरसिंगार के फूलों -सी झरती है
माँ कभी नहीं मरती है।
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20 टिप्पणियां:
असलियत तो यह है यादव जी, कि आज स्वयं बच्चों के भीतर का भी 'वह मासूम बच्चा इतना बड़ा हो गया है कि बुद्धिपूर्ण और चतुराई भरे वातावरण में उसकी संवेदना की ताज़गी, टटकापन और बाल-सुलभ निश्छलता झुलस गयी है।' नगरों में अब गलियाँ नहीं हैं, सोसाइटीज़ और अपार्टमेंट्स के तंग-गलियारे हैं, जिनमें कोई बच्चा शायद ही कभी किलकता हो। 'दिल में बच्चे' इसी अर्थ में सकारात्मक है कि यह हमें गलियों की दुनिया के महत्त्व को समझाने का प्रयास करती है। 'माँ कभी नहीं मरती' ने मुझे स्वयं मेरी ही एक कविता की याद दिला दी और मेरी इस सोच को पुख्ता कर दिया कि माँ कभी नहीं मरती।
सच कहा आपने.
यदि यह रिश्ता बना रहा तो समाज निश्चित रूप से सृजन करता रहेगा और विध्वंस के दांत खट्टे करता रहेगा। आखिर, आशा और विश्वास ही तो जीवन के मजबूत आधार होते हैं, और कविता इन्हें पहचानती है ...हम कविता को पहचानते रहें , हम आदमी के बहुत करीब रहेंगे …
आपकी दोनो कविताये बहुत कोमल और सुन्दर हैं.
घर को जिसने बनाया एक मन्दिर
पूजा की थाली का घी
कभी वह
आरती के दिए की बाती बनकर जलती है
dono rachnaye bahut achi hai ye panktiyan dil men utar gayi...sach men maa kabhi nahi marti..
bahut hi hridaysparshi rachnayen....
आपकी रचनात्मक सक्रियता यूं ही बनी ऒर बढ़ती रहे । शुभकामनाएं ।
aapki dono kavitaen bahut hee prabhavshali tatha ek satya ko bhee ujagar kartee hain.aaj ham sabhee ka maasoom bachcha kahin kho gaya hai.aur maa veh to hamare jeevan ki sabse badee takat hai uske bina ham ek asatya ke dher par khade hain.itni sundar rachna padvane ke liye aabhar.
दिल में बच्चे और माँ कभी नहीं मरती -दोनों ही कविताओं ने मन को बहुत गहराई तक छू लिया । इस तरह की कविताओं का काव्य -जगत में अभाव चिन्ता पैदा करता है । सुरेश यादव जी अपनी कविताओं से गाहे -बगाहे याद दिलाते रहते हैं कि भैया यह होती है कविता । इसमें गोता लगाओ और कुछ सुकून के पाओ । जो कुछ मरणासन्न है , उसे जीवित कर लो
भाई सुरेश जी,
दोंनो कविताएं मन में उतर गयीं. बलराम अग्रवाल की बात सही है, लेकिन मेरा घर ऎसी जगह है जहां शहर और गांव की मिली जुली संस्कृति विराजमान है और यहां की गलियों में हर शाम बच्चों का शोर गूंजता रहता जो मुझे अपने बचपने में ले जाता है. वैसे महानगरों यह गुंजाइश लगभग समाप्त हो गयी है.
मां सचमुच कभी नहीं मरती.
बधाई,
चन्देल
माँ और बच्चों को लेकर भावपूर्ण अभिव्यक्ति..खुबसुरत कवितायेँ..सुन्दर लगी..बधाई.
http://www.parikalpnaa.com/2011/08/blog-post_03.html
pahli baar aapke blog ka pata chala.maa ke upar likhi kavitaaon ne dil choo liya.bahut achcha likhta hai aap.aabhar.
घर के आँगन में
हर सुबह
हरसिंगार के फूलों -सी झरती है
माँ कभी नहीं मरती है।
..sach ek MAA hi jise koi nahi bhula sakta..
bahut hi sundar MAA ko samarpit rachna ke liye aabhar!
सुरेश जी, दोनों रचनाएँ दिल को छू गईं। माँ----- कविता में तो आपने थोड़े शब्दों में ही माँ के विराट रूप को साक्षात आंखों के सामने चलचित्र-सा ला खड़ा किय है। ऐसी अच्छी रचना के लिए बधाई।
दोनों रचनाएँ दिल को छू गईं।
भावमय करते शब्दों के साथ गजब का लेखन ...आभार ।
खाकर कोई केला
फेंकता है छिलका
और
कोई निरपराध
बीच सड़क पर गिरता है
दूर खड़ा कोई जब
जोर-जोर से हँसता है
महायुद्ध
धीरे-धीरे इसी तरह रचता है
फिर कोई
बरसों तक नहीं हँसता है।
बेमिसाल ....
सुरेश जी ,सरस्वती-सुमन पत्रिका के एक अंक की अतिथि संपादिका हूँ ....
आपके ब्लॉग पे ये क्षणिका देखी तो मांगने चली आई .....
अपने संक्षिप्त परिचय और तस्वीर के साथ भेजिए न अपनी बेहतरीन क्षणिकायें .....
harkirathaqeer@gmail.com
maa sachmuch kabhi nahi marti vo tamaam umar dil me jinda rahti hai....bahut hi khoosurat kavita ke liye vadhaai.....
namaskar !
aaj bachpan gum hotaa jaa raha hai .dosh kise de hum ? aaj baccha vyask zald ho jaat hai . apno maasoomiyat ko kinaare kar aadmi bane ki chaah zzayaad rakhtaa hai . magar doutaa kis aur hai sabhi koi jaantaa hai . aap ki kavitae man ko chune wali hai ,sadhuwad . badhai
saadar
बहुत सुन्दर कविताएँ हैं । वधाई सुरेश जी !
बच्चों की खिली खिली आहट जब बनती है खिलखिलाहट तो ऐसी ही कालजयी कविता का संसार मन में उमड़ता है और सच कहा है कवि ने कि मां कभी नहीं मरती और मैं कह रहा हूं कि कभी नहीं मरता मां का अहसास, अपनी प्रत्येक सांस तक और मृत्यु के बाद भी अगर जीवन है तो उसमें मां की उपस्थिति तो होगी ही, अपनी पूरी गरिमा में, इसे नकारा नहीं जा सकता।
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