बुधवार, 27 जुलाई 2011

कविता



अपनी बात
जिनके मन में बच्चे होते हैं, उनके हृदय मासूमियत से भरे होते हैं। हैवानियत के लिए फिर कोई स्थान नहीं बचता है। आज समाज में चारों तरफ जो हैवानियत है, कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे भीतर का वह मासूम बच्चा इतना बड़ा हो गया हो कि बुद्धिपूर्ण और चतुराई भरे वातावरण में हमारी संवेदना की ताज़गी, टटकापन और उसकी बाल सुलभ निश्छलता झुलस गयी हो, कहीं ऐसा तो नहीं फूलों की खुशबू, निश्चल किलकारी और मासूम रंगों का अस्तित्व मिटा कर हिंसा और दरिंदगी अपने पैर पसारने का उपक्रम कर रही हो, इन तमाम सवालों से कविता सबसे पहले जूझती है। इस लिए भी कि आदमी से कविता का रिश्ता सबसे नजदीकी का है। यदि यह रिश्ता बना रहा तो समाज निश्चित रूप से सृजन करता रहेगा और विध्वंस के दांत खट्टे करता रहेगा। आखिर, आशा और विश्वास ही तो जीवन के मजबूत आधार होते हैं, और कविता इन्हें पहचानती है ...हम कविता को पहचानते रहें , हम आदमी के बहुत करीब रहेंगे …
महज़ दो कवितायें दे कर आप की संवेदना का साझीदार बनने हेतु प्रयास कर रहा हूँ…आप की प्रतिक्रियाएं मुझमें समझ और विवेक पैदा करेंगी, धन्यवाद।
-सुरेश यादव

दिल में बच्चे


गलियों में गुमसुम बच्चे

जब - खुलकर हँसते हैं

फूलों से भर जाती खुशबू

रंग फूलों में खिलते हैं


आँगन में

जब जब शोर मचाती

इन बच्चों की किलकारी

चटख रंगों की

फागुन में जैसे

मौसम की पिचकारी


हँसते - गाते धूम मचाते

दिल को दिल की राह बताते

बैर-भाव सब भूल भालकर

रोज़ गले सब मिलते हैं


बच्चे जिनके दिल में बसते हैं।


माँ कभी नहीं मरती


माँ उठती है - मुंह अंधेरे

इस घर की तब -

'सुबह' उठती है


माँ जब कभी थकती है

इस घर की

शाम ढलती है


पीस कर खुद को

हाथ की चक्की में

आटा बटोरती

हँस-हँस कर - माँ


हमने देखा है

जोर जोर से चलाती है मथानी

खुद को मथती है - माँ

और

माथे की झुर्रियों में उलझे हुए

सवालों को सुलझा लेती है

माखन की तरह

उतार लेती है - घर भर के लिए


माँ - मरने के बाद भी

कभी नहीं मरती है


घर को जिसने बनाया एक मन्दिर

पूजा की थाली का घी

कभी वह

आरती के दिए की बाती बनकर जलती है


घर के आँगन में

हर सुबह

हरसिंगार के फूलों -सी झरती है

माँ कभी नहीं मरती है।

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