मेरी ये दोनों कवितायें 'प्यासे पत्थर' और 'अच्छा आदमी' पच्चीस वर्ष से कम पुरानी नहीं हैं. आज मैं जब यह पोस्ट प्रकाशित करने लगा तो सबसे आगे आकर खड़ी हो गई -पूरे उत्साह के साथ. मुझे लगता है कि समय के साथ जिन्दा रहने की जैसी ललक मनुष्य में होती है - कविताओं तथा साहित्य की अन्य विधाओं में भी होती है. कवितायें मृतप्राय पन्नों पर सोती नहीं हैं, निरंतर समय के साथ अनुभव ग्रहण करती हैं. इस अनुभव की अभिव्यक्ति अपने समय का आदमी या कोई भी पाठक अपनी अनुभूतिपरक व्याख्या से करता है. निरंतर चलती यह प्रक्रिया रचनाकार और रचना के बीच वह रिश्ता है जो एक दुसरे को गढ़ता है. पाठक इसका सर्वाधिक विश्वसनीय गवाह होता है. मैं ऐसे ही सुधी पाठकों के बीच अपनी कविताओं को रख कर दूर हटता हूँ … बेवाक और सच्ची प्रतिक्रिया की उत्सुकता के साथ.
-सुरेश यादवप्यासे पत्थर
बचपन में
पढ़ी और सुनी थी
प्यासे कौवे की कहानी
जिसने
अधभरे घड़े में
डाले थे कंकर -पत्थर
फिर -
मुहाने तक भर आये पानी को
पिया था जी भर कर
चाहतों के अधभरे घड़े में डाले
मैंने भी
श्रम और वक्त के न जाने कितने पत्थर
पानी का इंतजार किया मेरे भी होठों ने
मुहाने तक आये, लेकिन -चीखते पत्थर
प्यासे थे बहुत जो
और उनमें थी पी जाने की गहरी ललक
खुद मुझको ही - घूंट घूंट कर ।
00
अच्छा आदमी
तुमने मुझे अच्छा आदमी कहा
मैं, काँप गया
हिलती हुई पत्ती पर
थरथराती
ओस की बूँद-सा !
तुमने
मुझे 'अच्छा आदमी' कहा
मैं सिहर उठा
डाल से टूटे
कोट में टंक रहे उस फूल-सा,
जो किसी को अच्छा लगा था।
'अच्छा आदमी' फिर कहा,
तुमने मुझे
और मैं भयभीत हो गया हूँ
भेड़ियों के बीच मेमने-सा
जंगल में जैसे घिर गया हूँ।
'अच्छा आदमी' जब-जब कोई कहता है
बहुत डर लगता है।
00
12 टिप्पणियां:
Dono lajwab lagi
मतलब यादव जी यहां भी मजे उपर गए तो वहां कोई टिप्पणियां का ऑप्शन नहीं, फिर सीढि़या उतर कर नीचे ही आना पड़ा।
अविनाश भाई आप भी चक्कर में पड़ गए ,फिर औरों का क्या होगा .ध्यान से देखिये ऊपर' कमेंट्स 'लिखा हुआ है जाकर तो देखिये.
आपकी ये दोनों कविताएं बेशक वर्षों पुरानी हैं पर आज भी प्रासंगिक हैं और नई सी ताजगी लिए हुए हैं। 'अपनी बात' के अन्तर्गत बहुत कम शब्दों में बहुत बड़ी बात कह दी है आपने, बड़ी मार्के की है आपकी बात। इस बात को थोड़ा सा और विस्तार मिल जाता तो मेरे विचार से बात और ज्यादा स्पष्ट हो जाती। खैर, बधाई !
आपकी कवितायेँ जीवन के बहुत करीब होती हैं. वैसा ही जैसा हम देखते-भोगते हैं. दोनों कवितायेँ प्रशंशनीय हैं..बधाई.
________________________
'शब्द-शिखर' पर ब्लागिंग का 'जलजला'..जरा सोचिये !!
सुरेश जी आपके ब्लॉग पर समकालीन हिंदी कविता का बेहतरीन नमूना मिलता है.. २५ वर्ष पुराणी कविता लग नहीं रही क्योंकि पत्थर आज भी प्यासे हैं.. या कहिये अधिक प्यासे हो गए हैं... श्रम और वक्त के कितने ही कंकर हम चाहतों के घड़े में डाल रहे हैं लेकिन कहाँ बुझ रही है प्यास.... बल्कि बढ़ ही रही है... पत्थर के प्यासे होने का बिम्ब आज भी नया लग रहा है... और आज भी डर रहा है आम आदमी अच्छा आदमी कहे जाने पर... सुंदर और कालजयी रचना ... सादर
मिथिलेश दुबे,अविनाश वाचस्पति,और आकांक्षा निरंतर मेरी कवितायेँ पढ़ते हैं हार्दिक धन्यवाद.सुभाष नीरव और अरुण रॉय ने इन कविताओं की गहराई में उतर कर इन कविताओं की आत्मा को छुआ है.आभारी हूँ .नीरव जी ने कविता के सन्दर्भ में मेरी जिस बात को और आगे बढ़ने की बात की है ,मैं अगले अंक या अगली पोस्ट में और खुलासा कर दूंगा.आप सभी को पुनः धन्यवाद.
मिथिलेश दुबे,अविनाश वाचस्पति,और आकांक्षा निरंतर मेरी कवितायेँ पढ़ते हैं हार्दिक धन्यवाद.सुभाष नीरव और अरुण रॉय ने इन कविताओं की गहराई में उतर कर इन कविताओं की आत्मा को छुआ है.आभारी हूँ .नीरव जी ने कविता के सन्दर्भ में मेरी जिस बात को और आगे बढ़ने की बात की है ,मैं अगले अंक या अगली पोस्ट में और खुलासा कर दूंगा.आप सभी को पुनः धन्यवाद.
Priya Bhai Suresh,
Apki kavitaon ka bharpoor lutf uthaya. 'Khilone' aur ' Achha Admi' jitni saadee hain us se kahin zayada maarak hain. Sidhi dil par chot karti hain aur kuchh sochne ko majboor karti hain. Unki samapti par unka ek naya aarambh apni sarthakta ko darshata hai. Itni achhi rachnaon ke liye bahut bahut badhai. Blog shandar hai.
Ramesh Kapur
9891252314
अच्छा आदमी
achchhi lagi yah kavita.
lagatar kavitayen pad raha hoon
achcha laga. kavitayen par alag se likhunga
badhayen
एक टिप्पणी भेजें