अधूरे आदमी को संस्थाएं विकसित करती रहती हैं और इनका दायरा परिवार से लेकर विश्व समाज तक फैला होता है.मनुष्य कभी अपने एकल सोच से और प्रायः सामूहिक सोच से संस्थाओं को निर्मित एवं पोषित करता आया है. इस अनवरत प्रक्रिया में समाज निर्माणरत रहता है. ज्ञान का अभाव, विवेक की चूक और संकल्प की शिथिलता हमें वहां भी पहुंचा देती है जहाँ नियति को हम विवश होकर ढोते हैं. यह व्यक्ति के जीवन में भी होता है और समाज के व्यापक फलक पर भी होता है. हर फसल अपने साथ निर्माण के बीज लाती है जो बार-बार ऐसी फसलों को पनपाते हैं, जहाँ मनुष्य समाज का विवेक और गौरव लहलहाता है. जब जब विवेक धराशाही होता है और विनाशक बीज हमारे बीच पनपते हैं, चिंता स्वाभाविक है. समाज की पहचान और उसकी सभ्यता का आग्रह तो उसकी चिंताएं होती हैं न कि ठहाकों में उड़ाने की प्रवृति.
अन्य बातें फिर कभी. फिलहाल मैं अपनी दो कवितायेँ प्रस्तुत कर आप को अपनी संवेदनाओं का भागीदार बनाने की चाहत लेकर उपस्थित हो रहा हूँ …
-सुरेश यादवखेलने लगे खिलौने
इस लिए
कि इनसे खेलेंगे
खेलने लगे अपनी मरजी से
लेकिन ये खिलौने
करने लगे मनमानी
बच्चों को खाने लगे बे खौफ
ये खिलौने
बेकाबू हुए हैं जब से ये खिलौने
एक-एक कर हम भूल गए हैं
सारे खेल बदहवासी में
खिलौने अब हमें डराने लगे हैं.
0
इस बस्ती के लोग
भरी बरसात में
बेच डाले हैं अपने छोटे-छोटे घर
खरीद लाये हैं एक बड़ा-सा आकाश
इस बस्ती के लोग
बैठे हैं जिन डालों पर
काटते उन्हीं को दिन-रात
कालिदास होने का भ्रम पाले हुए हैं
इस बस्ती के लोग
इनके दर्दों से कोई रिश्ता नहीं होता
किसी और के जुकाम पर बेहाल होते हैं
इस बस्ती के लोग
चूल्हे - इन्हीं के होते हैं
जिनमें उगती है घास
सहलाते हैं हरापन इसका
थकती नहीं नज़रें इनकी
जाने किस नस्ल के रोमानी हैं
इस बस्ती के लोग.
00
33 टिप्पणियां:
pehli sher thi to doosri sava sher...dono hi lajawaab...doosri waali badi hi maarmik...
सुरेश जी हमेशा की तरह आपकी कविताएँ एक सुखद अनुभूति दे जाती है..आज भी आप की लाज़वाब प्रस्तुति है खिलौनें की वास्तविकता क्या खूब कही ...आपसे नोएडा कवि सम्मेलन में मिलना भी बहुत बढ़िया लगा इतने बड़े प्रोग्राम में आपकी रचनाएँ भी कमाल की थी....वहाँ के लिए भी बधाई क्योंकि कार्यक्रम ख़त्म खोने से पहले मैं जा चुका था तो आपसे मिल नही पाया..और यहाँ सुंदर प्रस्तुतिकरण के लिए भी आभार..
सुन्दर रचनाएं।
बहुत बढ़िया प्रस्तुति ... आभार .
खिलौना तो मिल गया है अब आपको भी सुरेश भाई। जिसे संसार कहता है इंटरनेट और उस पर बसता है हिन्दी ब्लॉग। खूब आनंद उठा रहे हैं। खुद भी खेल रहे हो और सबको खिला रहे हो। टिप्पणी पढ़ते हुए मुस्करा रहे हो।
वैसे हरापन बन गया है हरामपन।
कह रहे हैं सब ही इसे अपनापन।
न जाने कौन सा है यह मन।
दूसरे के दुख में सुख मिलता है सबजन।
उत्तम कविताएं और उत्तम विचार्… कविताओं के साथ कवि की सोच और उसकी चिंता का पता लगना भी जरूरी है। कविताओं के साथ 'अपनी बात' देते रहा करें। ब्लॉग का नया रूप आकर्षक है।
Sundar aur sahaj bhavabhivyakti ke
liye aapko badhaaee aur shubh kamna
सोचने को मजबूर करती अच्छी कविता...
bahut achchhi kavitayen
दोनों ही कविताएँ अनुपम हैं। पहली कविता की हर पंक्ति अस्तित्व के प्रति सचेत करती-सी लगती है और लगातार भयावह होती जा रही परिस्थितियों से रू-ब-रू कराती है। दूसरी कविता की जमीन पहली से भिन्न है। लगता है कि वह खिलौनों से आगे की दुनिया के लोगों से मिलवा रही है। पहली नजर में तो लगा था कि यह अलग है और वह अलग।
Suresh jee aapki dono kavitaon ne mere man ko gehre se chhua ha,kitni gehri baat kahi hai-
sare khel badahwaasi me
khilone ab hame darane lage hain, tatha-
chulhe inhee-ke hote hain
jinme oogtee hai ghaas.
bahut sundar rachna hai,badhai
प्रिय सुरेश,
अच्छी ऒर सहज मार्मिक कविताएं पढ़ने का अवसर देने के लिए कृतज्ञ रहूं गा । विशेष रूप से इस बस्ती के लोग कविता ने बेचॆन किया । बधाई ऒर शुभकामनाएं ।
दिविक रमॆश
divikramesh34@gmail.com
सुरेशजी ,
इन कविताओं में माटी की गंध है सोंधी-सोंधी ! वो देर तक महकती रहती है मन की भीतरी परतों पर ! बधाई !
Rekha Maitra
rekha.maitra@gmail.com
भाई!
धन्यवाद
आप की दोनों रचनाएँ पढ़ीं. अच्छी लगीं.
मगर पहली कविता में खिलौना के साथ 'रचना' शब्द कुछ जम नहीं रहा. मेरे ख़याल में खिलौना के साथ रचना के बदले बनाना अधिक उचित लगता है. हो सके तो इस पर विचार करें. वैसे कविता आप की है आप स्वतंत्र हैं.
आलम ख़ुर्शीद
alamkhurshid9@gmail.com
आपकी दोनों रचनाएं पढ़ीं.....ऐसे मंत्रमुग्ध किया है इसने कि अब क्या कहूँ,क्या टिपण्णी करूँ कुछ समझ नहीं आ रहा है...
माता से प्रार्थना करती हूँ कि वे सदा आपकी लेखनी पर सहाय रहें...
अक्सर इनकी चीखों का
इनके दर्दों से कोई रिश्ता नहीं होता
किसी और के जुकाम पर बेहाल होते हैं
इस बस्ती के लोग
aapki kavitaye.N padhna sukhad raha........
सुंदर कविताएं।
भाई सुरेश,
बहुत ही सार्थक और मन को छू देने वाली कविताएं हैं. आपकी कविताओं की दूसरी खूबी जो मुझे प्रभावित करती है वह है कम शब्दों में बड़ी कह देने की .
बधाई,
चन्देल
कविवर सुरेश जी,
अभी अभी आपके ब्लॉग की सभी कविताएँ पढ़ गयी। इन छोटी छोटी कविताओं में गहरा
जीवन-दर्शन झाँक रहा है. जो मन को सहज ही छू लेता है।इनमें विविधता है, सच्चाई है।
वैसे सभी में कुछ न कुछ संदेश है किन्तु विशेष कर "वादे", "प्यासे पत्थर" और
"तिनका और आग" बहुत अच्छी लगीं। आपका साधुवाद!!
मैंने कोई ब्लॉग नहीं बनाया है,पर लिखती हूँ,कविता भी और गद्य भी। पुस्तकें हैं
पत्रिकाओं में और ई-कविता पर भी। कभी आपको भेजूँगी।
शुभकामनाओं सहित,
शकुन्तला बहादुर
shakunbahadur@yahoo.com
आदरणीय सुरेश जी, नमस्कार
आपकी इन दोनों कविताओं को मैं पहले दिन ही पढ़ चुका हूँ..आज दुबारा पढ़ना भी बहुत बढ़िया लगा..बेहतरीन भाव से सराबोर है आपकी रचना..इतनी बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई..
सस्नेह
विनोद पांडेय
voice.vinod@gmail.com
आपकी इन छोटी-छोटी कविताओं में पूरे संसार की पीड़ा उकेरी गई है । बधाई
आज पहली बार आना हुआ पर आना सफल हुआ देर से आने का दुःख भी बेहद प्रभावशाली प्रस्तुति किस किस बात की तारीफ करूँ ...
बेकाबू हुए हैं जब से ये खिलौने
एक-एक कर हम भूल गए हैं
सारे खेल बदहवासी में
खिलौने अब हमें डराने लगे हैं.
कितनी सहजता से कितनी बड़ी बात कह डाली है आपने ..बहुत सुन्दर.
सुरेश जी पहली कविता का शिर्सक 'खिलौना बम' कर दीजिये तो ज्यादा अर्थ स्पष्ट होगा ......!!
दोनों रचनायें प्रभावी हैं ....!!
कृपया 'शिर्सक' को शीर्षक पढ़ें ....
और ये क्या अपने आप को ...अपनी ही बधाई .....???
ये कला तो आपसे सीखनी पड़ेगी ....!!
हरकीरत 'हीर' जी ,आप का शुक्र गुज़ार हूँ की आप ने गलती करते ही ऊँगली उठा दी और मैं नीरव जी की सहायता से सुधार कर सका.नए ब्लाग लेखकों से ऐसी खूब सूरत गलतियाँ प्रायः हो जाया करती हैं.किसीकी ख़ूबसूरत कविता पर टिप्पड़ी करनी ,थी,गलती से मेरे हिस्से में आगई. पर सच मानिये मात्र दो चार मिनट से अधिक .....नहीं.आप को एक वार फिर धन्यवाद.
उत्तम कविताएं और उत्तम विचार्…
suresh jee , pranam !
aap ne baarish me kaviton ka naya rang prastutat kar diya , dil ko choone wali hai ,
sadhuwd
सुरेश भाई, आप की चिंता सहज है. एक कवि होने के नाते. कवि होने की शर्त होती है मनुष्यता और जो मनुष्य होगा सिर्फ उसी से इस तरह की चिंता की अपेक्षा की जा सकती है.आदमी किसी अधूरेपन में नहीं शायद अपने ज्ञान के दर्प में ऐसे खिलौने बनाता है, जो बाद में उसे ही डराने लगते हैं. वह नियंता बनना चाहता है,इस तरह पर हर बार वह अपने ही जाल में फंस जाता है. वास्तव में कालिदास वही बन सकता है, जो या तो परम मूर्ख हो या परम निश्चिंत. आप की बस्ती उन लोगों की है, जिनके पास खोने के लिये कुछ नहीं है और यही तो कठिन से कठिन जीवन का सच्चा रोमांस है. अच्छी कविताओं के लिये मेरी बधाईयां.
सुरेश जी की कविताएँ बहुत गहराई तक उतर जाती हैं। इनकी कविताओं में हवाई कल्पना नहीं बल्कि अनुभूति के विशेष क्षणों के ऐसे टुकड़े हैं जिन्हें कवि ने न जाने कितने यत्न से सहेज कर रखा और शब्दों में सजाकर यहाँ प्रस्तुत किया है।
-डा० जगदीश व्योम
दोनों रचनाएँ बहुत प्रभावी हैं। यथार्थ को बेहद खुबसूरत शब्दों में अभिव्यक्ति देते हैं आप........
एक टिप्पणी भेजें