अपनी बात
मित्रो फिर विलम्ब हुआ है जिसका कारण मेरी व्यस्तता रही है. आपसे मिलने की चाह में कोई कमी नई रही. मुझे विश्वास है की आप अपने कीमती समय में से कुछ पल निकाल कर मेरी इन कविताओ का आश्वादन करेंगे और पहले की भाँति अपनी बेबाक राय देकर मुझे अनुग्रहित करेंगे. प्रतीक्षा रहेगी.
-सुरेश यादव
मेरी संवेदना
तुम्हारी कविता में
बहुत बार
हथेलियों के बीच…
मरी तितलियों का रंग उतरता है
बहुत बार
घायल मोर का पंख
तुम्हारी कविता में रंग भरता है
ऊंचे आकाश में
चिड़िया मासूम कोई जब
बाज़ के पंजों में समाती है
शब्दों की बहादुरी
तुम्हारी कविता में भर जाती है
मेरी संवेदना
जाने क्यों
इन पन्नों पर जाती हुई
शर्माती है।
ज़मीन
मेरी कविताओं की ज़मीन
उस आदमी के भीतर का धीरज है
छिन चुकी है
जिसके पावों की ज़मीन
भुरभुरा-उर्वर किये है
इस ज़मीन को
हरियाते घावों की दुखन
इस ज़मीन का रंग
खून का रंग है
इस ज़मीन की गंध
देह की गंध है
इस ज़मीन का दर्द
आदमी का दर्द है
कुछ नहीं होता जब
ज़मीन पर
तब दर्द की फसल होती है
मैं इसी फसल को
बार बार काटता हूँ
बार बार बोता हूँ
आदमी के रिश्ते को
इस तरह कविता में ढ़ोता हूँ
आदमी को कभी नहीं खोता हूँ।
विश्वास
मन होता जब
बहुत उदास
कविता पास आ जाती
अनायास
सूझती नहीं राह
अँधेरा बहुत घना होता
कविता जलती है दिए -सी
फैलता प्रकाश
जब होता है
हारा हुआ मन
छाई होती -टूटन और थकन
कविता
जगाती आस
बन जाती
आस्था और विश्वास।
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मित्रो फिर विलम्ब हुआ है जिसका कारण मेरी व्यस्तता रही है. आपसे मिलने की चाह में कोई कमी नई रही. मुझे विश्वास है की आप अपने कीमती समय में से कुछ पल निकाल कर मेरी इन कविताओ का आश्वादन करेंगे और पहले की भाँति अपनी बेबाक राय देकर मुझे अनुग्रहित करेंगे. प्रतीक्षा रहेगी.
-सुरेश यादव
मेरी संवेदना
तुम्हारी कविता में
बहुत बार
हथेलियों के बीच…
मरी तितलियों का रंग उतरता है
बहुत बार
घायल मोर का पंख
तुम्हारी कविता में रंग भरता है
ऊंचे आकाश में
चिड़िया मासूम कोई जब
बाज़ के पंजों में समाती है
शब्दों की बहादुरी
तुम्हारी कविता में भर जाती है
मेरी संवेदना
जाने क्यों
इन पन्नों पर जाती हुई
शर्माती है।
ज़मीन
मेरी कविताओं की ज़मीन
उस आदमी के भीतर का धीरज है
छिन चुकी है
जिसके पावों की ज़मीन
भुरभुरा-उर्वर किये है
इस ज़मीन को
हरियाते घावों की दुखन
इस ज़मीन का रंग
खून का रंग है
इस ज़मीन की गंध
देह की गंध है
इस ज़मीन का दर्द
आदमी का दर्द है
कुछ नहीं होता जब
ज़मीन पर
तब दर्द की फसल होती है
मैं इसी फसल को
बार बार काटता हूँ
बार बार बोता हूँ
आदमी के रिश्ते को
इस तरह कविता में ढ़ोता हूँ
आदमी को कभी नहीं खोता हूँ।
विश्वास
मन होता जब
बहुत उदास
कविता पास आ जाती
अनायास
सूझती नहीं राह
अँधेरा बहुत घना होता
कविता जलती है दिए -सी
फैलता प्रकाश
जब होता है
हारा हुआ मन
छाई होती -टूटन और थकन
कविता
जगाती आस
बन जाती
आस्था और विश्वास।
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7 टिप्पणियां:
तीनों रचनाएँ बहुत संवेदनशील ..अच्छी प्रस्तुति
बहुत संवेदनशील रचनाये हैं ... कमाल का लिखा है ..
तुम्हारी कविता में
बहुत बार
हथेलियों के बीच…
मरी तितलियों का रंग उतरता है
बहुत बार
घायल मोर का पंख
तुम्हारी कविता में रंग भरता है
waise saari rachnayen bemisaal
teeno rachnaaye samvednao se paripoorn kavi man ki udvignta ko shabd deti sunder rachnaaye.
गहन संवेदनाओं की अभिव्यक्ति करती आपकी कविताएँ सीधे मन में उतर जाती हैं।
namaskaar !
har kavitaa apne ek alag andaaz me hai , behad maasoom see , apne gahre bhaavo ko liye , badhai .
saadar
कविता
जगाती आस
बन जाती
आस्था और विश्वास।
..bilku sahi baat!
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