अपनी बात
आदमी को अपनी जड़ों से उखाड़ने में जिन विपत्तिओं का हाथ होता है, उनमें गरीबी महत्वपूर्ण स्थान रखती है. उखड़ा हुआ पेड़ और उखड़ा हुआ आदमी, दोनों ही अपने अस्तित्व से जूझते हैं. जैसे पेड़ दूसरी ज़मीन पर जड़ें प्राप्त कर लेता है, आदमी का हाल भी ऐसा ही होता है. संघर्ष का यह समय किसी के भी जीवन की गहन संवेदनाओं से भरा होता है, क्योंकि इसमें बहुत कुछ खोया-पाया जाता है… कवितायें कब संघर्ष की ज़मीन पर फूल की तरह खिल जाती हैं, पता नहीं चलता है ... कुछ पुरानी कवितायें सामने हैं… और आप के सामने रखने की चाहत है…
-सुरेश यादव
आदमी को अपनी जड़ों से उखाड़ने में जिन विपत्तिओं का हाथ होता है, उनमें गरीबी महत्वपूर्ण स्थान रखती है. उखड़ा हुआ पेड़ और उखड़ा हुआ आदमी, दोनों ही अपने अस्तित्व से जूझते हैं. जैसे पेड़ दूसरी ज़मीन पर जड़ें प्राप्त कर लेता है, आदमी का हाल भी ऐसा ही होता है. संघर्ष का यह समय किसी के भी जीवन की गहन संवेदनाओं से भरा होता है, क्योंकि इसमें बहुत कुछ खोया-पाया जाता है… कवितायें कब संघर्ष की ज़मीन पर फूल की तरह खिल जाती हैं, पता नहीं चलता है ... कुछ पुरानी कवितायें सामने हैं… और आप के सामने रखने की चाहत है…
-सुरेश यादव
चिमनी पर टंगा चाँद
मेरे गाँव के हो तुम
यार - चाँद !
धुएं वाली ऊंची चिमनी पर
टंगा देखा तुम्हें
बहुत दिनों बाद
पहचाने नहीं गए तुम
पी गया लगता है - सारा दूधियापन
यह शहर
तुम हो गये… इतने पीले
सूख कर कांटा मैं भी हुआ
ढ़ोते ढ़ोते वादे सपनीले
याद करो दोस्त
जब हम गाँव से आये थे
बेशक - छूट गए थे खेत
सारस, बया के घोंसले, शिवाले और धुँआते छप्पर
लेकिन -
गोबर सने हाथों राह निहारती आँखें
और मिलकर साथ खेला
चहकता हुआ आकाश
हम साथ लाये थे
बेशक - अक्स चटक कर
इस शहर में
छितरा गए थे मेरी और तुम्हारी तरह!
हमने फिर भी भागती भीड़ में
थोड़े से सपने जिन्दा जरूर बचाए थे
एक दिन मिलो चाँद
इस तरह - किसी थके हुए चौराहे पर
वही अपनी-सी दूधिया हंसी लेकर
मैं भी मिलूँगा तुम्हें
अपने गाँव की तरह
बाँहों में भर कर ।
गरीब गाँव
गरीब हैं, गाँव के लोग
इतने गरीब
जब-जब कोई दूर देश से आता है
राजकुमार हो जाता है
गाँव में आज तक
नहीं हुआ कोई राज कुमार
इस लिए
जो भी आता है
इन्द्रधनुष की तरह
इस आकाश में छा जाता है
'पारस' है इस गाँव में
छू जाता है जब-जब कोई
दूर देश से आकर
वह - 'सोना' हो जाता है
'पारस' तो पत्थर है
पत्थर ही रह जाता है
गाँव - गरीब है इतना
'ब्लैकबोर्ड' की तरह
अमीरी का एक-एक अक्षर यहाँ
खड़िया-सा चमक जाता है ।
गरीब का हुनर
घर - सूखी घास के
छप्पर - फूस के
चूल्हे खुले हुए
पेट की आग बुझाने की खातिर
गरीब - चूल्हे की आग जलाते हैं
हवाएं - बेखौफ चलती हैं
फूस के घरों में
लपटों को ऊंचा उठाती हैं
छप्पर की ओर
चिनगारियां बिखर जाती हैं
साँसें गरीब की सहम जाती हैं
हुनर है - इस गरीब के पास
ऐसा कि
जिस आग से वह घर बचाता है
उसी आग से
वह रोटी भी पकाता है।
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17 टिप्पणियां:
सभी रचनायें बहुत बढिया हैं।बधाई स्वीकारें।
सभी रचनाएँ एक से बढ़कर एक , दिल से निकली आवाज को आपने शब्दों में बढ़िया पिरोया है .
सभी रचनाएँ बहुत सुंदर ... चिमनी पर टंगा चाँद बहुत पसंद आई
एक से बढ़कर एक सभी रचनाएँ आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी....रचना के लिए बधाई स्वीकारें !!!!!!
नयी पुरानी हलचल से आपके ब्लॉग तक पहुंची.........
बहुत खूबसूरत रचनाओं का खजाना पाया....
सादर.
अनु
हुनर है - इस गरीब के पास
ऐसा कि
जिस आग से वह घर बचाता है
उसी आग से
वह रोटी भी पकाता है।very nice.....
कविताओं की भाव-भूमि अनुभूति की सच्चाई पर आधारित है इसलिये मन तक संप्रेषित हो जाती हैं !
बेहतरीन कविता है सर!
सादर
बहुत सुन्दर रचनायें।
वाह! बेहद खूबसूरत और मन को छूती कविताएं
सुरेशजी आपकी सभी रचनायें बहुत सुन्दर हैं ....दर्द से नम....और बिछोह से तड़पती आपकी रचनायें ....अंत:कारण को छील गयीं ...!
तीन तीन मन को छूती हुयी रचनाएं पढवाने के लिए आभार
बहुत-बहुत ही अच्छी भावपूर्ण रचनाये है......
dil ko chune vali behad sundar rachnaye..
सुन्दर कविताएँ...
suresh bhai aapki rachnaye bahut hi sundar aur bhavpoorna hain...bhadhai sweekaren
ek se badhkar ek.....
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